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संन्यासी का द्वन्द : ८५
इतना भोजन दीजिए, कि दूसरे घर इन्हें जाना ही न पड़े।" गणधर गौतम अतिमुक्त के सुन्दर संस्कारों से प्रसन्न थे। गौतम ने अपनी मर्यादा से भक्त-पान लिया और लौटने लगे। अतिमुक्त ने समीप होकर पूछा : “आप कहाँ जा रहे हैं !" ___"नगर से बाहर श्रीवन में मेरे धर्म गुरु हैं। उनकी सेवा में जा रहा हूँ।" गौतम ने नेह भरे नयनों से देखते हुए कहा । ___"अच्छा, आपके भी गुरु हैं ? तो चलिए मैं उनके दर्शन करूंगा।' अतिमुक्त परिचित की भाँति साथ में चल रहा था। गौतम ने जैसे वन्दन किया, वैसे ही अतिमुक्त ने भी प्रभु को सभक्ति वन्दन किया। जगमगाती इस बाल-जीवन ज्योति को भगवान् ने मधुर शब्दों में मधुर उपदेश दिया।
"भंते. मैं भी आप जैसा होना चाहता हूँ।" अतिमुक्त ने विश्वास के गम्भीर स्वर में कहा।
अतिमुक्त अपने घर लौटा। पिता से और माता से अपने हृदय की भावना स्पष्ट कह दी। माता हँसी, पिता मुस्कराया। दोनों ने समवेत स्वर में कहा :
"भिक्षु बनना हँसी खेल नहीं है वत्स ! यह असिधारा पर चलना है जलते अंगारों पर बढ़ना है। जीवन में ही मत्यु का नाम है-भिक्षुत्व ! तुम अभी कुसुम-से कोमल हो।" __मैंने अपने आपको तोल लिया है, नाप लिया है। अपनी शक्ति को परख लिया है मैं अंगारों पर चल सकता हूँ। शूलों पर बढ़ सकता हूँ। मेरा संकल्प अटल है।" अतिमुक्त के दृढ़ स्वर से माता-पिता कंपित हो गए। अपने पक्ष को सबल करते हुए अतिमुक्त बोल रहा था :
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