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६४ : पीयूष घट
मुनियों ने अलग-अलग चातुर्मास करने की आज्ञा माँगी । एक मुनि ने सिंह की गुफा में, दूसरे ने सर्प के बिल पर तीसरे ने कुए की मेढ़ पर और स्थूलभद्र मुनि कोशा वेश्या के घर चातुर्मास करने की आज्ञा माँगी ।
गुरु ने उन चारों मुनियों को आज्ञा दे दी । सब अपने-अपने इष्ट स्थान पर चले गये । जब स्थूलभद्र मुनि कोशा वेश्या के घर गये तो वह बहुत हर्षित हुई । वह सोचने लगी :
" बहुत समय का बिछड़ा मेरा प्रेमी वापिस मेरे घर आ गया ।"
मुनि ने वहाँ ठहराने के लिए वेश्या की आज्ञा माँगी । उसने मुनि को अपनी चित्रशाला में ठहरने की आज्ञा दे दी। इसके पश्चात श्रृंगार आदि करके वह बहुत हाव-भाव दिखाकर, मुनि को चलित करने की कोशिश करने लगी, किन्तु स्थूलभद्र अब पहले वाले स्थूलभद्र न थे । भोगों को किपाकफल के समान दुखदायी समझकर वे उन्हें ठुकरा चुके थे । उनके रग-रग में वैराग्य घर कर चुका था । इसलिए काया से चलित होना तो दूर; वे मन से भी चलित नहीं हुए। मुनि की निर्विकार मुख मुद्रा को देखकर वेश्या शान्त हो गई। मुनि का धर्मोपदेश वैश्या हृदय को छू गया और वह जाग गई। उसने भी भोगों को दुःख की खान समझ कर उनको सर्वथा के लिए त्याग दिया और वह श्राविका बन गई |
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चातुर्मास समाप्त होने पर सिंहगुफा; सर्पद्वार और कुए की मेढ़ पर चातुर्मास करने वाले मुनियों ने आकर गुरु को वन्दन किया गुरु ने "कृत दुष्कराः" कहा, अर्थात् "हे मुनियों ! तुमने दुष्कर कार्य किया है, मेरी आत्मा तुमसे प्रसन्न है ।”
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