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पश्चात्ताप की आग !
जीव की जैसी परिणति होती है, उसका जीवन भी उसी ढांचे में ढलता है । असत्कर्म तो हेय होता ही है, परन्तु सत्कर्म की आसक्ति भी बड़ी भंयकर होती है, जिसको दारुण फल से बिना भोगे छटकारा नहीं मिल पाता ।
राजा श्रेणिक की राजधानी राजगृह में श्रमण भगवान महावीर पधारे। और गुणशीलक उद्यान में विराजित हुए । एक दर्दुर नाम वाला तेजस्वी देव दर्शन को आया । देव के दिव्य तेज को देखकर, गणधर गौतम ने पूछा : "भंते ददुर को यह अद्भुत तेज कैसे मिला ?"
भगवान् ने मधुर स्वर में कहा गौतम, एक बार मैं यहाँ पर आया । यहाँ का समृद्ध, सुखी और व्यवहार चतुर मणिकार, नन्द मेरा प्रवचन सुनकर सन्तुष्ट हुआ और उसने श्रावक व्रत स्वीकृत किए । वह धर्म साधना करता रहा । कालान्तर में वह असंयत और आसक्त मनुष्यों के संसर्ग में रहने के कारण धर्म में शिथिल हो गया.....
!"
" एक बार ज्येष्ठ मास में उसने निर्जल तेला किया। पौषधशाला में वह तप करने बैठ तो गया, परन्तु अत्यन्त तृष । एवं अत्यन्त क्षुधा से पीड़ित हुआ और समभाव नहीं रख सका । उसके मन में विचार आया :
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