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सेवा का आदर्श!
द्वारका के प्रशस्त राजमार्ग से श्रीकृष्ण अपने गजराज पर बैठकर भगवान नेमिनाथ के दर्शन और वन्दना को जा रहे थे। साथ में अंग-रक्षक सेना तथा अन्य बहुत विशिष्ट जन भी थे।
राजमार्ग के समीप ही एक वृद्ध पुरुष को देखा : 'देह से जर्जरित है, हाथ-पैर कांप रहे हैं, चलते-फिरते देह का सन्तुलन भी ठीक नहीं रहता है। फिर भी, वह अपने कंपित हाथों से एक-एक ईंट उठाकर अपने घर के अन्दर ले जा रहा है। वह अपने जीर्ण भवन को फिर से खड़ा करने के प्रयत्न में है।"
श्रीकृष्ण के हृदय को दया-भावना सहयोग के रूप में फूट पड़ो। दीन पर दया करना, हीन को उभारना-महापुरुषों का सहज स्वभाव है। नवनीत, जैसे आग के ताप से पिघल उठता है, वैसे दया-प्रवीण सज्जन हृदय भी दुःखी के दुःख को देखकर पिघल जाता है। दया, सेवा में परिणत हो जाती है। सहानुभूति और सद्भाव, मानवता की आधारशिला बन जाती है।
श्रीकृष्ण हाथी से नीचे उतरे, अपने अनुचरों को आदेश न देकर स्वयं अपने हाथ से एक ईंट उठाई और वृद्ध के घर के अन्दर डाल दी।
युग-पुरुष जिधर देखने लगता है, उधर हजारों की दृष्टि टिक जाती है । जिधर वह अपने दो डग रखता है, उधर हजारों कदम
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