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विष हारा, अमृत जीता
भगवान महावीर का प्रथम वर्षावास जिस ग्राम में था, उसका नाम अस्थिग्राम था । वर्षावास पूरा करके महावीर का श्वेताम्बिका जाने का संकल्प था। मार्ग दो थे-एक सीधा, दूसरा धूमकर । भगवान सीधे रास्ते से जाने लगे। ग्राम के बाहर गवाले हंस रहे थे। महासाधक महावीर को उन्होंने वनपथ की ओर जाते देखा तो कहने लगे : ___ "भिक्ष, इधर जाना ठीक नहीं है। इधर आगे चलकर एक दृष्टि-विष सर्प रहता है, वह भयंकर है। जो भी इधर से गया, वह न आगे जा सका, और न लौट कर आ सका।" ___ अभय को भय नहीं होता। इस सत्य को ग्वाल-बाल नहीं आंक सके । मतवाला, मस्त साधक निरन्तर आगे बढ़ता रहा ! आगे ही आगे बढ़ता गया ! ! चित्त में न भय ! न त्रास ! न आकुलता! ___ जीवन में जिस अभय, अद्वेष और अखेद का पावन सन्देश लेकर वह साधक चला था, उसका अमृत-पान वह दृष्टि-विष सर्प को भी करा देना चाहता था। चलते-चलते मस्त योगी ने सर्प की बाँबी पर ध्यान लगा दिया था-स्थिर खड़े होकर ।
दृष्टि-विष सर्प के जीवन में आज यह प्रथम अवसर था, जब कि वह एक मानव को अभय रूप में अपनी बांबी पर खड़े देख
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