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४४ : पीयूष घट
प्यासी तलवार ?" भय और लोभ से मनुष्य अनुचित बात को भी स्वीकार करने में विवश हो जाता है । उन्होंने भी स्वीकार किया।
एक बार रत्ना देवी लवण सागर की देख-भाल करने गई और दोनों से कह गई : "तुम यहीं रहना । मैं जल्दी लौटने का प्रयत्न करूंगी । दक्षिण दिशा को छोड़कर तुम किसी भी दिशा में जाना, सर्वत्र तुम्हें बाग-बगीचे और आमोद-प्रमोद के साधन मिलेंगे। दक्षिण में एक दृष्टि-विष सर्प रहता है, उधर भूलकर भी मत जाना।"
निषेध, मनुष्य के मानस में एक तीव्र जिज्ञासा उत्पन्न कर देता है। जिनपालित और जिनरक्षित, देवी के बन्धनों से अकुला गए थे। माता-पिता की मधुर स्मृति और मात-भूमि का सहज स्नेह उनके मानस में पल्लवित हो गया। दृढ़ निश्चय मनुष्य को मार्ग बताता है।
वे दक्षिण दिशा में बढ़ चले । आगे चलकर शूली पर चढ़े एक मनुष्य को देखा और पूछा : “तुम कौन हो?"
उसने कहा :
"मैं एक व्यापारी हूँ। रत्ना देवी की बासना का शिकार होने से ही मेरी यह दशा हुई है। उसको बात न मानने पर वह यही हाल करती है। तुम अपना कल्याण चाहते हो तो यहां से पूर्व दिशा की ओर जाओ। बहाँ एक खण्ड में शैलक यक्ष का यक्षायतन है, वह अश्व-रूप में रहता है। अष्टमी, चतर्दशी, अमावस्या और पूर्णिमा के दिन वह अपने भक्तों से कहता है- किसको रक्षा करूँ ।' अत. तुम वहाँ जाने से छूट सकते हो।"
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