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३२ : पीयूष घट
भद्रा पगली बन चुकी थी। अति शोक मनुष्य को उन्मत्त कर देता है। गवाक्ष में बैठे अरणक ने इस पगली नारी को देखा। यह वात्सल्य की प्रति-मूर्ति उसकी जानी-पहचानी थी। उसे अपनी करनी पर खेद हो आया। स्नेहाभिभूति हो तल्ले से उतर पड़ा। माता के सम्मुख आँसू भर कर बोला : माता ! मेरी माता, और उसकी यह दशा ? माँ, मैं हूँ तेरा अरणक ! क्षमा करो माता, मेरे गुरुतर अपराध को।"
नारी का स्नेह हार गया. माता की ममता जीत गई । अस्वस्थ अरणक स्वस्थ हो गया।
अरणक ने माता से पुनः सविनय कहा : "माता, मैं लम्बा संयम नहीं पाल सकता। मार्ग भले ही कठोर हो, परन्तु छोटा हो। आज्ञा हो, तो अनशन कर लू !" ___ आचार्य की सेवा में पहुँचकर आलोचना की जीवन की संशुद्धि की और आचार्य तथा माता को आज्ञा से तप्त शिलाखण्ड पर पादपोप गमन संथारा कर लिया । अल्पकाल में ही सुकोमल शरीर नवनीत-सा पिघल गया । अरणक ने अपना कार्य साध लिया।
अरणक जितना भीरु था, उतना ही वीर निकला। ग्रीष्म परीषह को जीतने वाले साधक के लिए यह आवश्यक है कि वे अपनी सुकुमालता का परित्याग करें।
उ० अ०, नि० गा०६२/.
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