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नारी का मन : २७
मन बदलने से सब बदल गया था। विश्वास बदला तो विश्व बदल गया।
रंग-रंगीले महल, मेघकूमार के लिए कारागृह हो गए। प्राणप्रिया वनिताएँ पैर की बेड़ी बन गईं। परन्तु मेघकुमार के आध्यात्मिक जागरण ने एक झटके में उन्हें तोड़कर दूर फेंक दिया। अब यदि कोई बन्धन शेष था तो जन्म देने वाली माता की सहज ममता थी। मनुष्य सब कुछ ठकरा सकता है. परन्तु माता की ममता का वह सहसा तिरस्कार नहीं कर सकता। धीरे-धीरे अनुनय-विनय से मेघकुमार ने माता की ममता पर भी विजय पा ली। आत्म-बोध की तीव्र भावना लेकर वह प्रभु के चरणों में जा पहुंचा।
परम प्रभु महावीर के चरणों में उपस्थित होकर मेधकुमार ने विनीत भाव से कहना आरम्भ किया :
"भते, यह संसार विषय और कषाय को आग से जल रहा है। घर में आग लग जाने पर गह स्वामी अपनी सारी वस्तुएं लेकर बाहर निकल आता है, वैसे ही मैं भी अपनी प्रिय वस्तु आत्मा को इस प्रज्ज्वलित संसार गहह से निकाल लेने की भावना से प्रत्रजित होना चाहता हूँ।" __मेघकुमार की माता महारानी धारिणी ने स्नेह भरे हृदय से और अश्रुपूर्ण नेत्रों से भगवान् की ओर देखते हुए विनम्र भावेन निवेदन किया :
"भंते, यह मेघकुमार मेरा पुत्र है। मुझे यह अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय है, कान्त है, इष्ट है और प्रिय है। जिस प्रकार कुमुद पंक में से पैदा होकर भी पंक और जल से अभिलिप्त नहीं होता, उसी प्रकार यह मेरा मेघ भी काम-भोगमय जीवन व्यतीत
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