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कषायके भेद और उनके कार्य
पञ्चसंग्रह
'सम्मत - देस संजम संसुद्धीघाइकसाई पढमाई ।
सिं तु भवे नासे सड्ढाई चउहं । उप्पत्ती ॥११०॥
प्रथमादि अर्थात् अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन कषाय क्रमशः सम्यक्त्व, देशसंयम, संकलसंयम और पूर्ण शुद्धिरूप यथाख्यातचारित्रका घात करते हैं । किन्तु उनके नाश होनेपर आत्मामें श्रद्धा अर्थात् सम्यक्त्व आदिक चारों गुणोंकी उत्पत्ति होती है ।। ११० ।।
क्रोधकषाय की जातियाँ और उनका फल -
2 सिलभेय पुढविभेया धूलीराई य उदयराइसमा ।
+ णिर- तिरि-णर- देवत्तं उविंति जीवा हु कोहवसा ॥ १११ ॥
अनन्तानुबन्धी क्रोध शिलाभेद के समान है, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध पृथ्वीभेदके समान है, प्रत्याख्यानावरण क्रोध धूलिराजिके समान है और संज्वलनक्रोध उदक अर्थात् जल - राजिके समान है । इन चारों जातिके क्रोध के वशसे जीव क्रमशः नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगतिको प्राप्त होते हैं ||१११ ॥
मानक पाय की जातियाँ और उनका फल
सेलसमो असिमो दारुसमो तह य जाण वेत्तसमो ।
x रि-तिरि-र-देवत' उविंति जीवा हु माणसा ||११२||
अनन्तानुबन्धी मान शैल-समान है, अप्रत्याख्यानावरण मान अस्थि-समान है, प्रत्याख्यानावरण मान दारु अर्थात् काष्टके समान है और संज्वलन मान वेत्र ( वेंत ) के समान है । इन चारों जातिके मानके वशसे जीव क्रमशः नरक, तिर्यच, मनुष्य और देवत्वको प्राप्त होते हैं ॥ ११२ ॥
मायाकषायकी जातियाँ और उनका फल -
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वसीमूलं मेसस्स सिंग गोमुत्तियं च खोरुप्पं ।
+ णिर- तिरि-र- देवत्त उविंति जीवा हु मायवसा ॥ ११३ ॥
अनन्तानुबन्धी माया बाँसकी जड़के समान है, अप्रत्याख्यानावरण माया मेषा के सींग के समान है, प्रत्याख्यानावरण माया गोमूत्र के समान है और संज्वलन माया खुरपाके समान है । इन चारों ही जातिके मायाके वशसे जीव क्रमशः नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवत्वको प्राप्त होते हैं ।। ११३ ||
लोभकषायकी जातियाँ और उनका फल
" किमिराय चक्कमल कदमो य तह चेय : जाण हारिद्दं । *णिर-तिरिणर- देवत्तं उविंति जीवा हु लोहवसा ॥ ११४ ॥
1. सं० पञ्चसं० १, २०४ - २०५ । 2. १, २०६ । ३. १, २०७ । 4. १२०८ । . १, २०९ । + द ब च हुं । कब गिर । x ब गिर + व णिर
व चेय । *व गिर ।
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