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पञ्चसंग्रह
तत्र श्रेण्यवरोहकासंयते उपशमश्रेण्यां द्वितीयोपशमिकं क्षायिक च। क्षपकश्रेण्यां क्षायिकमेव सम्यक्त्वमिति नियमात् । सासादनसम्यक्त्वादिनये निज-निजगुणस्थाने गुणस्थानोक्तवत् ॥३८५-३८८॥
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मिथ्यारुचीना- ११७ सासादनरुचीनां १०१ मिश्ररुचीनाम्
भव्य और अभव्य जीवोंमें तथा वेदक और क्षायिक सम्यक्त्वी जीवोंमें यथासंभव ओघके समान प्रकृतियोंका बन्ध जानना चाहिए। अभव्योंके एक पहिला ही गुणस्थान होता है और भव्योंके सभी गुणस्थान होते हैं। वेदकसम्यक्त्वी जीवोंके चौथेसे लेकर सातवें तकके चार और क्षायिकसम्यक्त्वी जीवोंके चौथेसे लेकर चौदहवें तकके ग्यारह गुणस्थान होते हैं । उपशमसम्यक्त्वी अविरती जीव देवायु और मनुष्यायुसे रहित सत्तहत्तर अर्थात् पचहत्तर प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं। विरताविरत उपशमसम्यक्त्वी जीव द्वितीय कषायचतुष्क, मनुष्यद्विक, औदारिकद्विक और आदिम संहनन, इन नौके विना शेष ६६ प्रकृतियोंको नियमसे बाँधते हैं। प्रमत्तविरत उपशमसम्यक्त्वी तृतीय कषायचतुष्कसे रहित शेष ६२ प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं। अप्रमत्तविरत उपशमसम्यक्त्वी अशुभ, अयशःकीर्ति, अस्थिर, अरति, असातावेदनीय और शोक इन छह प्रकृतियोंके विना तथा आहारकद्विकसहित ५८ प्रकृतियोंको बाँधते हैं। अपूर्वकरणसे आदि लेकर उपशान्तमोह तकके उपशमसम्यक्त्वी जीवोंके ओघके समान बन्धरचना जानना चाहिए । सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और मिथ्यादृष्टि जीवोंकी बन्धरचना उन-उन गुणस्थानों में वर्णित सामान्य बन्धरचनाके समान जानना चाहिए ॥३८५-३८८॥
(देखो संदृष्टि सं० ३२) अब शेष मार्गणाओंकी अपेक्षा बन्धादिका निर्देश करते हैं
सण्णि-असण्णि-आहारीसुं जह संभवो ओघो। भणिओ अणहारीसु जिणेहिं कम्मइयभंगो ॥३८॥
११२।
. एवं भग्गणासु पोडबंधसामित्तं । संश्यऽसंश्याहारकेषु यथासम्भवं ओघः गुणस्थानोक्तबन्धो भणितः। अनाहारकेषु कार्मणोक्तगुणस्थानवत् बन्धादिको जिनैभणितः । तथाहि--संज्ञिमार्गणार्या बन्धयोग्यं १२० । गुणस्थानानि १२ । मिथ्यात्वादि-क्षीणान्तेषु गुणस्थानोक्तं यथा । असंज्ञिमार्गणायां बन्धप्रकृतियोग्यं ११७ । मि. सा.
१६ २६ ११७ १८
आहारकेषु बन्धयोग्यं १२० । गुणस्थानानि १३ । बन्धादिकं गुणस्थानोक्तवत् । अनाहारमार्गणायां बन्धयोग्यं ११२ । कार्मणोक्तरचनावत् । देव-नारकायुष्यद्वयं २ आहारकद्वयं २ नारकद्वयं २ तिर्यग्द्विकं २ इत्यष्टानां अबन्धत्वात् शेषवन्धयोग्यं ११२ ॥३८॥
मि० सा० अवि० सयो० अयो. १३ २४ ६६५
१ १०७ ५ १८ ३७१११ ११२
इति मार्गणासु प्रकृतिबन्धस्वामित्वं समाप्तम् । संज्ञी, असंज्ञी और आहारक जीवोंमें प्रकृतियोंका बन्ध यथासंभव ओघके समान जानना
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