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'शतक
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जघन्याजघन्येषु त्रिषु साधध्रुवभेदाद् द्विविकल्पः । शेषनवतिप्रकृतीनामुत्कृष्टानुस्कृष्टजघन्याजघन्यप्रदेशबन्धचतुष्केऽपि साधध्रुवभेदाद् द्विविकल्प एव भवति ॥४६॥
उत्तर प्रकृतियों में से ( वक्ष्यमाण ) तीस प्रकृतियोंका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सादि आदि चारों प्रकारका होता है । उन्हींका शेषत्रिक अर्थात् उत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध सादि और अ६ वरूप दो प्रकारका होता है। उक्त प्रकृतियोंके अतिरिक्त शेष ६० प्रकृतियोंके उत्कृष्ट आदि चारों प्रकारके प्रदेशबन्ध सादि और अधूवरूप दो प्रकार के होते हैं ॥४६॥ अब भाष्यगाथाकार उक्त तीस प्रकृतियोंका नाम-निर्देश करते हैं- .
णाणंतरायदययं दसणछक्कं च मोहचउदसयं ।। तीसण्हमणुकस्सो पदेसबंधो चउवियप्पो ॥५०॥ अंतिमए छ दसणछकं थीणतिगं वञ्ज मोहचउदसयं । अण वज बारह कसाया भय दुगुंछा य ॥५०१॥
१४॥ ताः त्रिंशतमाह-['णाणंतरायदसयं' इत्यादि।] पञ्चज्ञानावरणान्तरायाः १० निद्रा-प्रचलाचक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शनावरणषटकं ६ अप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यान-संज्वलनक्रोधमानमायालोभ-भय-जुगुप्सा मोहनीयचतुर्दशकं १४ चेति त्रिंशतः प्रकृतीनां अनुत्कृष्टप्रदेशबन्धः साधनादिध्रुवाध्रुवबन्धभेदाच्चतुर्विकल्पो भवति । अत्र दर्शनावरणे स्त्यानत्रिकं वर्जयित्वा अन्तिमदर्शनषटकं ६ मोहे अनन्तानुबन्धि चतुष्कं वर्जयित्वा कषाया द्वादश, भय-जुगुप्साद्वयमिति मोहचतुर्दशकम् १४ ॥५००-५०१॥
प्रदेशबन्धे उत्तरप्रकृतयः ३० ज्ञा० ५ द. ६ अं० ५ मो०१४
प्र० ३० जघ० सादि . . अध्रु. प्र० ३० अज० सादि . . ,, प्र० ३० उत्कृ० सादि . . ,
प्र० ३० अनु० सादि अनादि ध्रुव , प्रदेशबन्धे उत्तरप्रकृतयः १० उत्कृष्टादि. साधादिबन्ध-रचना
प्र० ६० जघ. सादि ० . अध्रव० प्र० १० अज० सादि . . , प्र० १० उत्कृ० सादि . . , प्र० ६० अनु० सादि .
इत्युकृष्टादिप्रदेशबन्ध-साद्यादिबन्धाष्टकं समाप्तम् । ज्ञानावरणकी पाँच, अन्तरायकी पाँच, दर्शनावरणकी छह और मोहकी चौदह; इन तीस प्रकृतियांका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध चारों प्रकारका होता है। यहाँपर जो दर्शनावरणकी छह प्रकृतियाँ कहीं हैं सो स्त्यानगृद्धित्रिकको छोड़कर अन्तिम छहका ग्रहण करना चाहिए। तथा मोहकी जो चौदह प्रकृतियाँ कहीं हैं, उनमें अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्कको छोड़कर शेष बारह कषाय और भय तथा जुगुप्सा, ये चौदह प्रकृतियाँ ग्रहण की गई हैं ।५००-५०१॥
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१. गो० क० गा० २०६ ।
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