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सप्ततिका
पुनरपि दर्शनावरणस्य गुणस्थानेषु रचना रचिताऽस्तिगु० मि. सा. मि० अ० दे० प्र० अ० भ० अ० सू० उ० क्षी० उ० सी० च० ब० १ ६ ६ ६ ६ ६ ४ ४ ४ . . . उ० ४५ ४५ ४५ ४५ ४५ ४५ ४५ ४५ ४।४ ४५ ४५ ४५ ४ स.
६ ।६
६ .४ गुण अपू० अनि० सू० उप० - उपशमश्रेणिप-- बं० ६१४४
- उ० ४५ ४५ ४५ ४५
स० उपरतबन्ध अर्थात् दर्शनावरणके बन्धका अभाव हो जाने पर उपशान्त मोहमें नौ प्रकृतिक सत्त्व होता है। क्षीणमोहके उपान्त्य समय तक लह प्रकृतिक सत्त्व और क्षीणमोहके अन्तिम समयमें चार प्रकृतिक सत्त्व और चार प्रकृतिक उदय रहता है। इससे पूर्ववर्ती गुणस्थानोंमें जाग्रत अवस्थामें चार प्रकृतिक और निद्रित दशामें पाँच प्रकृतिक उदय रहता है ॥१४॥
उपर्युक्त कथनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार हैगुण० मि. सा. मि० अवि० देश० प्रभ० अप्र० अपू. अनि० सू० उप० सी० उ० सी०च०
०००
उदय ४५ ५ ५ ५ ५ ५ ५ ५ ५ ५ ५ ४५ ४ सत्त्व १
६ ६ ६ ६ ४ __अब वेदनीय, आयु और गोत्र कर्मके बन्ध, उदय और सत्त्वके संयोगी भंगोंका निरूपण करते हैं[मूलगा०६] 'गोदेसु सत्त भंगा अट्ठ य भंगा हवंति वेयणिए ।
___ पण णव णव पण संखा आउचउक्के वि कमसो दु॥१॥
अथ गोत्र वेदनीयाऽऽयुषां त्रिसंयोगभङ्गान् भङ्क्त्वा गुणस्थानेषु योजयति--[ 'गोदेषु सत्त भंगा' इत्यादि । ] नीचोच्चगोत्रद्वयस्य असहशभङ्गाः सप्त भवन्ति ।। सातासातवेदनीयद्वयस्यासहशभङ्गाः अष्टौ भवन्ति। नरकगतौ नारकायुषः असहशभङ्गा पञ्च भवन्ति ५। तिर्यग्गत्यां तिर्यगायुषो भङ्गा नव विसदृशा भवन्ति है। मनुष्यगत्यां मनुष्यायुषो भङ्गा नव विसदृशा भवन्ति । देवगतौ देवायुषो भङ्गाः । पञ्च विसदृशाः स्युः ५ । गोत्रे ७ वेये ८ आयुषि ५१६।५ ॥१५॥
गोत्र कर्मके सात भंग होते हैं। तथा वेदनीय कर्मके आठ भंग होते हैं। आयु कर्मकी चारों प्रकृतियोंके क्रमसे पाँच नौ, नौ और पाँच भंग होते हैं ॥१५॥
विशेषार्थ-गोत्रकर्मके सात भङ्गोंका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-गोत्रकर्मके दो भेद हैंउच्चगोत्र और नीचगोत्र । इन दोनों भेदों में से एक जीवके एक समयमें किसी एकका बन्ध और किसी एकका उदय होता है क्योंकि उच्चगोत्र और नीचगोत्र ये दोनों परस्पर विरोधिनी प्रकृतियाँ हैं । अतएव इसका एक साथ बन्ध और उदय सम्भव नहीं है। किन्तु सत्त्व दोनोंका एक साथ
1. सं० पञ्चसं० ५, १८ । १. श्वे. सप्ततिकायामस्याः स्थाने कापि गाथा नास्ति ।
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