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पञ्चसंग्रह
गायुका बन्ध, मनुष्यायुका उदय, दोनोंका सत्त्व; (७) मनुष्यायुका बन्ध, मनुष्यायुका उदय, दोनोंका सत्त्व; ८ तिर्यगायुका बन्ध, देवायुका उदय, दोनोंका सत्त्व । ये आठ भंग छोड़ करके शेष २० भंग असंयतसम्यग्दृष्टिके होते हैं । अब संयतासंयतके छह भंगोंका स्पष्टीकरण करते हैं(१) तिर्यगायुका उदय, तिर्यगायुका सत्त्व; (२) देवायुका बन्ध, तिर्यगायुका उदय और देवायुतिर्यगायुका सत्त्व, (३) तिर्यगायुका उदय और देवायु-तिर्यगायुका सत्त्व, (४) मनुष्यायुका उदय
और मनुष्यायुका सत्त्व (५) देवायुका बन्ध, मनुष्यायुका उदय और देवायु-मनुष्यायुका सत्त्व, (६) मनुष्यायुका उदय और मनुष्यायु-देवायुका सत्व, ये छह भंग संयतासंयतके होते हैं। अब प्रमत्तसंयतके भंग कहते हैं-(१) मनुष्यायुका उदय और मनुष्यायुका सत्त्व, (२) देवायुका बन्ध, मनुष्यायुका उदय और दोनोंका सत्त्व, (३) मनुष्यायुका उदय और मनुष्यायु-देवायुका सत्त्व; इस प्रकार तीन भंग प्रमत्तगुणस्थानमें होते हैं । ये ही तीन भंग अप्रमत्तगुणस्थानमें भी होते हैं। अपूर्वकरणसे लेकर उपशान्तमोह तक चारों उपशामक और तीनों क्षपकोंमें (१) मनुप्यायुका उदय और मनुष्यायुका सत्त्व; तथा उपशामकोंकी अपेक्षा (२) मनुष्यायुका उदय और मनुष्यायुदेवायुका सत्त्व, ये दो दो भंग चारों गुणस्थानोंमें पृथक् पृथक् होते हैं । उन सबका योग ८ होता है। क्षीणमोह, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली इन तीनों गुणस्थानोंमें मनुष्यायुका उदय और मनुष्यायुका सत्त्वरूप एक ही भंग होता है। इस प्रकार सर्व मिलकर (२८+२६-१६+ २०+६+३+३+२+२+२+२+१+१+१=११३ आयुकर्मके एक सौ तेरह भंग होते हैं। अब गुणस्थानों में गोत्रकर्मके भंगोका निरूपण करते हैं
'मिच्छाई देसंता पण चदु दो दोण्णि भंगा हु । अट्ठसु एगेगमदो गोदे पणुवीस दो चरिमे ॥२६६॥ *गुणठाणेसु गोयभंगा ५।४।२।२।२।१।३।१।१।१।१।१।१२।
अथ गुणस्थानेषु गोत्रस्य त्रिसंयोगभङ्गान् तरसंख्याश्च गाथाचतुष्टयेन प्ररूपयति-[मिच्छाई देसंता' इत्यादि ।] मिथ्यादृष्टयादि-देशसंयतान्तं क्रमेण पञ्च ५ चतु ४ द्वौं २ द्वौ २ द्वौ २। ततोऽष्टसु गुणेषु एकैको भङ्गः ॥१७11॥१॥ अयोगे द्वौ भनौ २ इति गोत्रस्य पञ्चविंशतिर्भङ्गाः स्युः २५ ॥२६॥
गुण० मि. सा. मि० भ० दे० प्र० भ० भ० भ० सू० उ० . क्षी० स० भ० भङ्गाः ५ ४ २ २ २ १ १ . . . . . . .
मिथ्यात्वगुणस्थानसे लेकर देशसंयतगुणस्थान तक क्रमसे पाँच, चार, दो, दो और दो भंग होते हैं । तदनन्तर आठ गुणस्थानोंमें एक एक अंग होता है। चरम अर्थात् अयोगिकेवलीके दो भंग होते हैं । इस प्रकार गोत्रकर्मके सर्व अंग पञ्चीस होते हैं ॥२६६॥ गुणस्थानोंमें गोत्रकर्मके भंग इस प्रकार होते हैं
मि० सा० मि० अ० दे० प्र० अप्र० अपू० अनि० सू० उप० क्षी० सयो० अयो०
1. सं० पञ्चसं० ५, ३२३ । 2. ५, 'गुणेषु गोत्रभङ्गा' इत्यादिगद्यांशः (पृ० २००)।
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