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पञ्चसंग्रह
गुणस्थान तक होता है। तीसरा अपवाद यह है कि जिन प्रकृतियोंका उदय चौदहवें गुणस्थानमें होता है, उनकी उदीरणा तेरहवें गुणस्थान तक ही होती है। चौथा अपवाद यह है कि चारों आयुकर्मोकी अपने-अपने भवकी अन्तिम आवलीमें उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती। पाँचवाँ अपवाद यह है कि पाँचों निद्राकर्मोंका शरीरपर्याप्ति पूर्ण होनेके पश्चात् इन्द्रियपर्याप्तिके पूर्ण होने तक उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती। छठा अपवाद यह है कि अन्तरकरण करनेके पश्चात् प्रथम स्थितिमें एक आवलो शेष रहनेपर मिथ्यात्वका, क्षायिकसम्यक्त्वको प्राप्त करनेवालेके सम्यक्त्वप्रकृतिका और उपशमश्रेणीमें जो जिस वेदसे उपशमश्रेणीपर चढ़ा है, उसके उस वेदका उदय ही होता है, उदीरणा नहीं। सातवाँ अपवाद यह है कि उपशमश्रेणीके सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें भी एक आरली कालके शेष रहनेपर सूक्ष्मलोभका उदय ही होता है, उदीरणा नहीं। इन सातों अपवादवाली कुल प्रकृतियाँ यतः इकतालीस ही होती हैं, अतः गाथासूत्रकारने इकतालीस प्रकृतियोंको छोड़कर शेष सर्व अर्थात एक सौ सात प्रक्रतियोंकी उदय औ उदीरणामें स्वामित्वकी अपेक्षा कोई भेद नहीं बतलाया है। अव मूल ग्रन्थकार उन इकतालीस प्रकृतियोंका नाम-निर्देश करते हैं[मूलगा० ५०] णाणंतरायदसयं दसण णव वेयणीय मिच्छत्तं ।
सम्मत्त लोभवेदाउगाणि णव णाम उच्चं च ॥४७४॥ एकचत्वारिंशत्प्रकृतयो गुणस्थानं प्रति दीयन्ते-[गाणंतरायदसयं' इत्यादि । ज्ञानावरणपञ्चकं ५ अन्तरायपञ्चकं ५ दर्शनावरणनवकं ६ सातासातवेदनीयद्वयं २ मिथ्यात्वं १ सम्यक्त्वं १ लोभः १ वेदप्रयं ३ आयुष्कचतुष्कं ४ नव नामप्रकृतयः । उच्चैर्गोत्र १ चेति प्रकृतय एकचत्दादिशत् ४१॥४७४॥
ज्ञानावरणको पाँच, अन्तरायकी पाँच, दर्शनावरणकी नौ, वेदनीयकी दो, मिथ्यात्व, सम्यक्त्व मोहनीय, संज्वलन, लोभ, तीन वेद, चार आयु, नामकर्मकी नौ और उच्चगोत्र, इन इकतालीस प्रकृतियोंके उदय और उदीरणामें स्वामित्वकी अपेक्षा विशेषता बतलाई गई है ॥४७४॥
विशेषार्थ-पाँच ज्ञानावरण, पाँच अन्तराय और चार दर्शनावरण, इन चौदह प्रकृतियोंकी बारहवें गुणस्थानमें एक आवली काल शेष रहने तक उदय और उदीरणा बराबर होती
ती है। किन्त तदनन्तर उनका उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती। शरीरपर्याप्तिके सम्पन्न होनेके पश्चात् इन्द्रियपर्याप्तिके सम्पन्न नहीं होने तक मध्यवर्ती काल में निद्रा आदि पाँच दर्शनावरण प्रकृतियोंका उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती। इसके सिवाय शेष समयमें उदय और उदीरणा एक साथ होती है। साता और असाता वेदनीयकी उदय और उदीरणा छठे गुणस्थान तक एक साथ होती है। किन्तु उपरिम गुणस्थानोंमें इन दोनोंका उदय ही होता है, उदीरणा नहीं । प्रथमोपशम सम्यक्त्वको उत्पन्न करनेवाले जीवके अन्तरकरण करनेके पश्चात् प्रथम स्थिति में एक आवली कालके शेष रहनेपर मिथ्यात्वका उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती। क्षायिकसम्यक्त्वको उत्पन्न करनेवाले जिस वेदकसम्यग्दृष्टि जीवके मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वका क्षय होनेपर सम्यक्त्वप्रकृतिको सर्व-अपवर्तनाकरणके द्वारा अपवर्तनासे अन्तर्मुहूर्तप्रमित स्थिति शेष रह जाती है, तदनन्तर उदय और उदीरणाके द्वारा क्रमशः क्षीण होती हुई वह स्थिति जब आवलीमात्र शेष रह जाती है, तब उस समयसे लेकर सम्यक्त्वप्रकृति का उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती। अथवा उपशमश्रेणीपर चढ़े हुए जीवके अन्तरकरण करनेपर प्रथमस्थितिमें आवलीकालके शेष रह जानेपर उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती।
१. सप्ततिका० ५५ ।
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