Book Title: Panchsangrah
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 855
________________ ७८८ पृष्ठ ५०६ ५०७ ५१२ ५१३ Jain Education International गाथा पञ्चसंग्रह पर्याप्ति पूर्ण होनेके पश्चात् होता है तथा विभंग ज्ञानियोंके ८ ४ ८२ का सत्वस्थान भी नहीं होना चाहिए ( गो० क० गाथा ७२४ ) । ४५२ संयमोंके नामकर्मका ८० प्रकृतिक सस्वस्थान सम्भव नहीं है, क्योंकि अनिवृत्तिकरण क्षपक गुणस्थान में सम्भव है । किन्तु देवद्विककी उद्वेलना होनेपर ८८ प्रकृतिक सस्वस्थान सम्भव है । अतः गाथा ४५२ में ८० के स्थानपर पद होना चाहिए । ४५६ तेज पश्यामें 'नामकर्मका २६ प्रकृतिक उदयस्थान भी सम्भव है। जो सम्यग्दृष्टि देव मरकर मनुष्यों में उत्पन्न होता है उसके शरीर ग्रहण करनेपर २६ प्रकृतिक उदयस्थान तेज व पद्म लेश्यामें होता है। ( पृ० ३८२ गा० २०४, पृ० ३७९ गाथा १९५ ) ४६८ असंज्ञी जीवोंमें नामकर्मका २४ प्रकृतिक भी उदयस्थान है, क्योंकि एकेन्द्रिय जीवोंमें शरीर ग्रहण करनेपर २४ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । ४७१ अनाहारकोंमें नामकर्मके ३० व ३१ प्रकृतिक उदयस्थान नहीं होते। १४ वें गुणस्थानमें भी ९ व ८ प्रकृतिक नामकर्मका उदयस्थान होता है। १४ वे गुणस्थानवाले अनाहारक है। (देखो, पृ० ३८३ व पृ० ५०८ गा० ४५८) अतः गाथा ४७१ में 'चउ उपर' के स्थानपर 'इयं उबर' होना चाहिए। विद्वान् पाठकगण उक्त सुझाये गये पाठोंके ऊपर विचारकर आगमानुकूल अर्थका अवधारण करें । For Private & Personal Use Only -सम्पादक www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 853 854 855 856 857 858 859 860 861 862 863 864 865 866 867 868 869 870 871 872