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पञ्चसंग्रह
शिष्योंको यह संकेत कर रहे हैं कि इनकार चौदह मार्गणाओंकी अपेक्षासे भी जहाँ जितनी प्रकृतियोंका बन्ध सम्भव हो, उसे आगम अनुसार जान लेना चाहिए । सो इसके विशेष परिज्ञानके लिए गो० कर्मकाण्डका बन्धाधिकार देखना आवश्यक है विस्तारके भयसे भाष्यगाथाकारने उसका विवेचन नहीं किया है।
___अब मूल सप्ततिकाकार किस गतिमें कितनी प्रकृतियोंका सत्त्व होता है, यह बतलाते हैं[मूलगा०५६]'तित्थयर देव-णिरयाउगं च तीसु वि गदीसु बोहव्वं ।
अवसेसा पयडीओ हवंति सव्वासु वि गदीसु ॥४८३॥ ___ अथ प्रकृतिसत्वपरिभाषामाह-[ 'तित्थयर-देव-णिरयाउगं' इत्यादि । ] तीर्थङ्करप्रकृतिसत्त्वं तियंग्गतिं विना नरक-मनुष्य-देवगतिषु तिसृषु भवति ज्ञातव्यम् । देवायुःसत्वं च द्वयोस्तिर्यग्मनुष्यगत्योः स्यात् । अवशेपाः १४५ प्रकृतयः सर्वाषु गतिषु सत्त्वरूपा भवन्ति ॥४८३॥
__ तीर्थकर नामकर्म, देवायु और नरकायु; इन तीन प्रकृतियोंका सत्त्व तीन तीन ही गतियोंमें जानना चाहिए । इसके सिवाय शेष सर्व प्रकृतियाँ सर्व गतियोंमें पाई जाती हैं ।।४८३॥ अब भाष्यगाथाकार उक्त गाथासूत्रके अर्थका स्पष्टीकरण करते हैं
*देवेसु य णिरयाऊ देवाऊ णत्थि चेव णिरएसु ।
तित्थयरं तिरएसु य रोसाओ होंति चउसु वि गदीसु ॥४८४॥ देवगतौ भुज्यमानदेवायुः बध्यमानतिर्यग्मनुष्यायुषी चेति सत्त्वत्रयम, नरकगतौ भुज्यमाननरकायुः बध्यमानतिर्यग्मनुष्यायुषी चेति सत्त्वत्रयम्, देवायुःसत्त्वं नास्ति । तिर्यग्गतौ तिर्यग्जीवे तीर्थकृत्वसत्त्वं न स्यात् । शेष १४५ प्रकृतिसत्त्वानि चतुर्गतिषु भवन्ति ॥४८४॥
देवोंमें नरकायु और नारकियोंमें देवायु नहीं पाई जाती है। इसी प्रकार तियचोंमें तीर्थकर प्रकृति नहीं पाई जाती है। शेष सर्व प्रकृतियाँ चारों ही गतियोंमें पाई जाती हैं ॥४८४॥
_ विशेषार्थ-देव मरकर नरकगतिमें उत्पन्न नहीं हो सकता और नारकी मरकर देवगतिमें उत्पन्न नहीं हो सकता, ऐसा नियम है। अतः देवोंके नरकायुका और नारकियोंके देवायुका बन्ध नहीं होता। और इसी कारण देवायुका सत्त्व नरकगतिको छोड़कर शेष तीन गतियोंमें, तथा नरकायका सत्त्व देवगतिको छोड़कर शेष तीन गतियोंमें पाया जाता है। तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध करनेवाले मनुष्यके देवायु या नरकायुका बन्ध सम्भव है। पर उसके तिर्यगायुका बन्ध कदाचित् भी सम्भव नहीं है क्योंकि तीर्थंकर प्रकृतिकी सत्तावाला जीव तिर्यंचोंमें उत्पन्न नहीं होता है, ऐसा नियम है। अतएव तीर्थंकरप्रकृतिका सत्त्व तिर्यग्गतिको छोड़कर शेष तीन ही गतियोंमें पाया जाता है।
अब मूलग्रन्थकार मोहकर्मके उपशमन करनेका विधान करते हैं[मूलगा०५७] पढमकसायचउक्कं दंसणतिय सत्तया दु उवसंता ।
अविरयसम्मत्तादी जाव णियट्टि त्ति णायव्वा॥४८॥
1. सं० पञ्चसं० ५, ४५४ । 2.५, ४५५। 3.५, ४५६ । १. सप्ततिका० ६१ । २. सप्ततिका० ६२ ।
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