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सप्ततिका
४८७ करणमें बन्धस्थान पाँच, उदयस्थान एक और सत्त्वस्थान चार होते हैं। अनिवृत्तिकरणमें बन्धस्थान एक, उदयस्थान एक और सत्त्वस्थान आठ होते हैं। सूक्ष्मसाम्परायमें बन्धस्थान एक, उदयस्थान एक और सत्त्वस्थान आठ होते हैं। दोनों छद्मस्थ जिनोंके अर्थात् उपशान्तमोह और क्षीणमोह वीतराग संयतोंके एक एक उदयस्थान और चार चार सत्त्वस्थान होते हैं। केवली जिनोंके अर्थात् सयोगिकेवली और अयोगिकेवलीके क्रमशः दो दो उदयस्थान और चार तथा छह सत्त्वस्थान होते हैं ॥३६६-४००॥
इन तीनों स्थानोंकी अङ्कसंदृष्टि मूल और टीकामें दी है। अब भाष्यगाथाकार उक्त त्रिसंयोगी स्थानोंका स्पष्टीकरण करते हैं
णामस्स य बंधोदयसंताणि गुणं पडुच्च य विभज्ज ।
तिगजोगेण य एत्थ दु भणियव्वं अत्थजुत्तीए ॥४०१।। नाम्नो बन्धोदयसत्त्वस्थानानि गुणस्थानानि प्रतीत्याऽऽश्रित्य अत्र गुणस्थानेषु त्रिसंयोगेन बन्धोदयसत्त्वभेदेन विभज्य विभागं कृत्वाऽन तान्येव प्रत्येकतोऽर्थयुक्त्या सर्वाण्युच्यन्ते ॥४०१॥
__नामकर्मके बन्धस्थान, उदयस्थान और सत्त्वस्थान गुणस्थानोंकी अपेक्षा विभाग करके त्रिसंयोगी भंगरूपसे अर्थयुक्तिके द्वारा यहाँ पर कहे जाते हैं ॥४०१॥
'तेवीसमादि कादं तीसंता होंति बंधमिच्छम्हि ।
उवरिम दो वज्जित्ता उदया णव चेव होंति णायव्वा ॥४०२॥ मिच्छे बंधा २३।२५२६।२८।२६।३०। उदया २१॥२४॥२५॥२६॥२७॥२८॥२६॥३०॥३१ ।
मिथ्यादृष्टौ बन्धस्थानानि प्रयोविंशतिकमादिं कृत्वा त्रिंशत्कान्तानि २३१२५२६।२८२६।३० भवन्ति । उदयस्थानानि उपरिमद्वयं नवकाष्टकस्थानद्वयं वर्जयित्वा एकविंशतिकादीनि नव भवन्ति ज्ञातव्यानि २१॥२४॥२५।२६।२७।२८।२६।३०॥३१॥४०२॥
मिथ्यात्वगुणस्थानमें तेईस प्रकृतिको आदि करके तीस प्रकृतिक तकके छह बन्धस्थान होते हैं। तथा उपरिम दोको छोड़कर शेष नौ उदयस्थान होते हैं ॥४०२॥
मिथ्यात्वमें बन्धस्थान २३, २५, २६, २८, २९, ३० प्रकृतिक छह होते हैं। उदयस्थान २१, २४, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१ प्रकृतिक नौ होते हैं। - तस्स य संतढाणा तेणउदि वजिदूण छाउवरिं ।
सासणसम्मे बंधा अट्ठावीसादि-तीसंता ॥४०३॥ १२।११।६०८८८४८२ । सासणे बंधा २८।२६।३० ।
तस्य मिथ्यादृष्टः सत्त्वस्थानानि त्रिनवतिकं वर्जयित्वा उपरितनानि षट १२१18010418२ । तथाहि-तैजसकार्मणागुरुलघुपघातनिर्माणवर्णचतुष्काणीति ध्रुवाः ९। स्वरयुग्मोनत्रसबादरपर्याप्त प्रत्येक स्थिरशुभसुभगादेययशस्कीर्तियुग्मानामेकैकेयपि नव है। चतुर्गति-पञ्चजाति-विदेह-षट-संस्थान-चतुरानपूर्व्याणामेकैकेऽपि पञ्च ५ मिलित्वा त्रयोविंशतिकं २३ बन्धस्थानं इत्यादिबन्धस्थानानि पूर्व प्रतिपादितानि । तेजस-कार्मणद्वयं २ वर्णचतुष्कं ४ स्थिशथिरे २ शुभाशुभे २ अगुरुलघु १ निर्माणं चेति ध्रुवाः १२। गतिषु एका गतिः १ जातिषु एका जाति:१ अस-बादर-पर्याप्त सुभगादेययशोयुग्मानामेकतराणि ११
1. सं० पञ्चसं० ५, ४१६ । 2. ५, 'बन्धे ३३' इत्यादिगद्यांशः (पृ० २१६ )। 3. ५, ४१७ ।
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