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सप्ततिका अब पहले जीवसमासोंमें ज्ञानावरण और अन्तराय कर्मसम्बन्धी बन्धादिस्थानोंके स्वामित्वका निर्देश करते हैं[मूलगा०२८] 'तेरससु जीवसंखेवएसु णाणंतराय-तिवियप्पो।।
एकम्हि ति-दु-वियप्पो करणं पडि एत्थ अवियप्पो ॥२५४॥ *तेरससु जीवसमासेसु ५ सण्णिपजत्ते मिच्छाइसहुमंतेसु गुणेसु बंधाइसु ५ तस्थेव उवरयबंधे उव
संत-खीणाणं ५।
अथ चतुर्दशजीवसमासेषु ज्ञानावरणान्तरायकर्मणोः प्रकृतीनां बन्धादिविकल्पान योजयति[ 'तेरससु जीवसंखेवएसु' इत्यादि । ] एकेन्द्रिय-सूचमबादर-द्वि-त्रि-चतुः-पञ्चेन्द्रियासंज्ञिनः पर्याप्तापर्याप्ता इति द्वादश, पञ्चेन्द्रियसंश्यपर्याप्तक एक इति त्रयोदशजीवसमासेषु ज्ञानावरणान्तरायप्रकृतीनां त्रिविकल्पो भवति बन्धोदयसत्त्वरूपो भवतीत्यर्थः। एकस्मिन् संज्ञिपर्याप्त के जीवसमासे त्रिविकल्पो द्विविकल्पश्च भवति । अत्र द्विविकल्पे करणमित्युपशान्त-क्षीणकपाययोः बन्धं प्रति विकल्पो न भवति । उपशान्त क्षीणकपाययोः बन्धस्य विकल्पो न भवतीत्यर्थः ॥२५॥
ज्ञा० अं० त्रयोदशसु जीवसमासेषु ज्ञानावरणान्तराययोः प्रकृतीनां बन्धोदयसत्वम्--
बं० ५
५ चतुर्दशे
ज्ञा० अं. संज्ञिनि पर्याप्त जीवसमासे मिथ्यदृष्टयादि-सूचमसाम्परायान्तेषु गुणस्थानेषु बन्धादित्रिके
त्रिक उ० ५ ५ स० ५ ५
ज्ञा० अंक तत्रैव संज्ञिपर्याप्त जीवसमासे उपरतबन्धयोर्बन्धरहितयोरुपशान्त-क्षीणकषाययोरुदये सत्त्वे च।
बं० ० ०
स० ५ ५ इति जीवसमासेषु ज्ञानावरणान्तरायप्रकृतिविकल्पः समाप्तः । आदिके तेरह जीवसमासोंमें ज्ञानावरण और अन्तरायके तीन विकल्प होते हैं। संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त नामक एक चौदहवें जीवसमासमें तीन और दो विकल्प होते हैं। किन्तु करण अर्थात् उपशान्त और क्षीणकषायगुणस्थानमें बन्धका कोई विकल्प नहीं है ।।२५४॥
विशेषार्थ-तेरह जीवसमासोंमें दोनों कर्मोंका पाँचप्रकृतिक बन्ध, पाँचप्रकृतिक उदय और पाँचप्रकृतिक सत्तारूप एक ही विकल्प या भङ्ग है। संज्ञीपंश्चेन्द्रियपर्याप्तमें मिथ्यादृष्टिगुणस्थानसे लेकर सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानतक पाँचप्रकृतिकबन्ध, और सत्तारूप; तथा उपरतबन्धवाले उपशान्त और क्षीणमोही जीवोंके पाँचप्रकृतिक उदय और सत्तारूप दो भङ्ग होते हैं। श्वे० चूर्णि और टीकाकारोंने गाथाके चौथे चरणका अर्थ इस प्रकार किया है--करण अर्थात् केवल द्रव्य मनकी अपेक्षा जो जीव संज्ञिपश्चेन्द्रिय कहलाते हैं ऐसे केवलीके उक्त दोनों कर्मोका बन्धउदयसत्त्वसम्बन्धी कोई विकल्प नहीं है।
1. सं० पञ्चसं० ५, २७७ । 2. ५, 'जीवसमासेषु' इत्यादिगद्यांशः (पृ० १९०) । १. सप्ततिका० ३४ ।
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