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सप्ततिका प्रकृतिक बन्ध, आठ प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्त्वरूप एक भंग होता है । अपूर्वकरण, और अनिवृत्तिकरण बादरसाम्पराय; इन दो गुणस्थानोंमें सात प्रकृतिक बन्ध, आठ प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्वरूप एक-एक भंग होता है । सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें छह प्रकृतिक बन्ध, आठ प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्त्वरूप एक भंग होता है । उपशान्तमोह नामक ग्यारहवें गुणस्थानमें एक प्रकृतिक बन्ध, सात प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्त्वरूप एक भंग होता है । क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थान में एक प्रकृतिक बन्ध प्रकृतिक उदय और सात प्रकृतिक सत्त्वरूप एक भंग होता है । तेरहवें गुणस्थानमें एक प्रकृतिक बन्ध, चार प्रकृतिक उदय और चार प्रकृतिक सत्त्वरूप एक भंग होता है। चौदहवें गुणस्थान में बन्ध किसी भी कर्मका नहीं होता, अतएव अबन्धके साथ चार प्रकृतिक उदय और चार प्रकृतिक सत्त्वरूव एक भंग पाया जाता है । इन सबकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है
गुण० मि० सा० मि० अवि० देश० प्रम० अप्र० अपू० अनि० सू० उप० क्षीण० सयो० भयो०
७८ ७८ ७८ ७८ 19
19
६
9
9
9
०
बन्ध ७१८ ७१८ ७ उदय Τ सत्व ८
-
-
८
८
४
Τ
-
७
८
८
८
८
Ε
८
८
'मूलपयडीसु एवं अत्थोगाढेण जिह विही भणिया ।
उत्तरपयडी एवं जहाविहिं जाण वोच्छामि ||७||
८
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[ मूलगा ०६ ] बंधोदय- कम्मंसा णाणावरणंतराइए पंच | बंधोवरमे विता उदयंसा होंति पंचैव ॥ ८ ॥
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ज्ञाना० अन्त ०
अथोत्तरप्रकृतिष्वाह—[ 'मूलपथडी एवं' इत्यादि । ] एवमनुनोक्तप्रकारेणार्थावगाढेन अर्थोपगूहनेन बह्वर्थगोपनेन मूलप्रकृतिषु याहशी विधिर्भणिता, तादृशी विधिरुत्तरप्रकृतिषु यथोक्तविधिं वच्यामि, स्वं जानीहि ॥ ७॥
बं० ५
उ० ५ स० ५
इस प्रकार अर्थके अवगाहन द्वारा मूल प्रकृतियों में जिस विधि से बन्ध, उदय और सत्त्वके भंगों का प्रतिपादन किया है, उसी विधिसे उत्तर प्रकृतियोंमें भी कहता हूँ, सो हे भव्य, तुम जानो ॥७॥
५
५.
५
अब ज्ञानावरण और अन्तरायकर्मकी पाँच-पाँच प्रकृतियोंके बन्ध, उदय और सत्त्वके संयोगी भंग कहते हैं
उवसंत खीणाणं
७
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ज्ञाना० अन्त ०
बं० ०
५ ५
उ०
सं०
४
४
४
० ५ ५
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1. सं० पञ्चसं० ५, ७ । 2. ५, ८ । ३. ५, दशसु इत्यादि गद्यभागः ( पृ० १५१ ) । १. सप्ततिका० ६, परं तत्र 'बंधोदयकम्मंसा' स्थाने 'बंधोदयसंतंसा' इति पाठः ।
अथ ज्ञानावरणस्यान्तरायस्य च पञ्च पञ्चप्रकृतिषु बन्धोदयसत्त्वसंयोगान् योजयति-- [ 'बन्धोदयकम्मंसा' इत्यादि । ] ज्ञानावरणान्तराययोमिथ्यदृष्ट्या दिसूक्ष्म साम्परायपर्यन्तं बन्धोदयसत्त्वानि पञ्च पञ्च प्रकृतयो भवन्ति । बन्धोपरमे बन्धविरामे पञ्च प्रकृतीनां अबन्धे सति उपशान्तक्षीणकषाययोरुदय- सच्चे तथा पञ्च पञ्च प्रकृतयः स्युः ॥८॥
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