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पञ्चसंग्रह
ज्ञाना. अन्त०
ज्ञाना० अन्त. बं० ५ ५
बं० ० ० भाद्यदशगुणस्थानेषु-उ०
उपशान्त-क्षीणकषाययोः-उ० ५ स० ५ ५ ज्ञानावरण और अन्तराय कर्मकी पाँच-पाँच प्रकृतियोंका बन्ध दशवें गुणस्थान तक होता है, अतएव वहाँ तक उनका पाँच प्रकृतिक उदय और पाँच प्रकृतिक सत्त्वरूप एक-एक भंग पाया जाता है। दशवें गुणस्थानके अन्तिम समयमें उनके बन्धका अभाव हो जानेपर भी ग्यारहवें
और बारहवें गुणस्थानमें उक्त दोनों कर्मोंका पाँच-पाँच प्रकृतिक उदय और पाँच-पाँच प्रकृतिक सत्त्वरूप एक-एक भंग पाया जाता है ।।८।।
___ इनकी अंकसंदृष्टि मूलमें दी है। अब दर्शनावरण कर्मके बन्ध, उदय और सत्त्वके संयोगी भंग कहते हैं[मूलगा०७] 'णव छक्कं चत्तारि य तिण्णि य ठाणाणि दंसणावरणे ।
बंधे संते उदये दोण्णि य चत्तारि पंच वा होंति ॥६॥ ___ अथ दर्शनावरणस्योत्तरप्रकृतिषु बन्धोदयसत्त्वस्थानसंयोगभङ्गान् गाथाषट्केनाऽऽह--[ 'णव छक्कं चत्तारि य' इत्यादि । ] दर्शनावरणस्य बन्धके सत्तायां च नवप्रकृतिकं १ प्रथम स्थानम् १ । स्त्यानगृद्धित्रयेण विना षट् प्रकृतिकं ६ द्वितीयं स्थानम् २ । निद्रा-प्रचले विना चतुःप्रकृतिकं ४ तृतीयं स्थानं ३ चेति बन्धप्रकृतिस्थानानि प्रीणि भवन्ति ॥६॥४॥ सत्ताप्रकृतिस्थानानि च त्रीणि भवन्ति ।।४। दर्शनावरणस्योदये द्वे स्थानके भवतः-चतुर्णा प्रकृतीनामुदयस्थानमेकम् ४ । वाऽथवा पञ्चानां मध्ये एकतरनिद्रासहितानां प्रकृतीनां उदयस्थानं द्वितीयम् ५ ॥६॥
दर्शनावरणके बन्ध और सत्त्वकी अपेक्षा नौ प्रकृतिक, छह प्रकृतिक और चार प्रकृतिका ये तीन स्थान होते हैं। उदयकी अपेक्षा चार प्रकृतिक और पाँच प्रकृतिक; ये दो स्थान होते हैं ॥६॥ अब भाष्यगाथाकार उक्त स्थानोंका स्पष्टीकरण करते हैं
'णव सव्वाओ छक्कं थीणतिगूणाइ दंसणावरणे । णिद्दा-पयलाहीणा चतारि य बंध-संताणं ॥१०॥
६४॥ प्रणेत्ताइदसणाणि य चत्तारि उदिति दसणावरणे । णिद्दादिपंचयस्स हि अण्णयरुदएण पंच वा जीवे ॥११॥
॥५॥ 'मिच्छम्मि सासणम्मि य तम्मि य णव होति बंध-संतेहिं ।
छब्बंधे णव संता मिस्साइ-अपुव्वपढमभायंते ॥१२॥ 1. संपञ्चसं० ५, ६ । 2. ५, १० । 3. ५, ११ । 4. ५, १२ । १. सप्ततिका० ७. परं तत्रायं पाठः-बंधस्स य संतस्स य पगइहागाई तिमि तुल्लाई । उदयद्वाणाइ दुवे चउ पणगं दंसणावरणे ॥
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