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सप्ततिका
है । इस वाक्यके द्वारा ग्रन्थकारने प्रस्तुत ग्रन्थकी प्रामाणिकता प्रकट की है। गाथाके द्वितीय चरणके द्वारा ग्रन्थकारने वक्ष्यमाण विषयका निर्देश किया है। कर्म-परमाणुओंका आत्माके प्रदेशोंके साथ जो एक क्षेत्रावगाही सम्बन्ध होता है, उसे वन्ध कहते हैं । बद्ध कर्म परमाणुओंके विपाकको प्राप्त होकर फल देनेको उदय कहते है । बँधनेके समयसे लेकर जब तक उन कर्मपरमाणुओंका अन्य प्रकृतिरूपसे संक्रमण नहीं होता, या जब तक उनकी निर्जरा नहीं होती, तब तक आत्माके साथ उनके अवस्थानको सत्त्व कहते हैं। स्थान शब्द समुदाय वाचक है। अतएव प्रकृत ग्रन्थमें कर्मप्रकृतियोंके बन्धस्थान, उदयस्थान और सत्त्वस्थान कहे जावेंगे, ऐसा अभिप्राय जानना चाहिए।
___ अब ग्रन्थकार प्रतिपाद्य विषय-सम्बन्धी प्रश्नोंका स्वयं उद्भावन करके ग्रन्थका अवतार करते हैं[मूलगा०२] कदि बंधंतो वेददि कइया कदि पयडिठाणकम्मंसा।
मूलुत्तरपयडीसु य भंगवियप्पा दु बोहव्वा ॥३॥ अथमूलोत्तरप्रकृतीनां स्थानभङ्गभेदप्रश्नमाह--[ 'कदि बंधतो वेददि' इत्यादि । ] मूलप्रकृतिषु ८ उत्तरप्रकृतिषु च कति कर्माणि जीवो बध्नन् कति कर्माणि वेदयति अनुभवति कतीनां कर्मणामुदयमनुभवतीत्यर्थः । कति कर्माणि बधनन् जीवः कतिपयानां कर्मणां सत्ता भवति । प्रकृतिस्थानकाशा इति कर्मप्रकृतिस्थानसत्त्वमेवेत्यर्थः। तु पुनः मूलप्रकृतिषु उत्तरप्रकृतिषु च भङ्गविकल्पाः कियन्तो भवन्तीति ज्ञातव्याः । तथा च
बन्धे कत्युदये सत्त्वे सन्ति स्थानानि वा कति ।
मूलोत्तरगताः सन्ति कियन्त्यो भङ्गकल्पनाः ॥१॥ इति बन्धे कति स्थानानि, उदये कति स्थानानि, सत्तायां कति स्थानानि भवन्ति ? मूलोत्तरप्रकृतिगता भङ्गविकल्पाः 'कियन्तो भवन्तीति प्रश्ने बन्धे स्थानानि चत्वारि ८७।६।१ । उदये स्थानानि त्रीणि ८७।४। सत्तायां स्थानानि त्रीणि ८७४। किं स्थानं को भङ्ग इति प्रश्ने संख्याभेदेनैकस्मिन् जीवे युगपत् प्रकृतिसमूहः स्थानम् । एकस्य जीवस्यैकस्मिन् समये सम्भवन्तीनां प्रकृतीनां समूहः स्थानमित्यर्थः। अभिन्नसंख्यानां प्रकृतीनां परिवर्तनं भङ्गः, संख्याभेदेनैकरवे प्रकृतिभेदेन वा भङ्गः ॥३॥
कितनी प्रकृतियोंका बन्ध करता हुआ जीव कितनी प्रकृतियोंका वेदन करता है ? तथा कितनी प्रकृतियोंका बन्ध और वेदन करनेवाले जीवके कितनी प्रकृतियोंका सत्त्व रहता है ? इस प्रकार मूल और उत्तर प्रकृतियांमें सम्भव भङ्गोंके भेद जानना चाहिए ॥३॥
विशेषार्थ-इस गाथाके पूर्वार्ध-द्वारा दो बातें सूचित की गई हैं। पहली तो यह कि बन्ध, उदय और सत्त्वके स्थान कितने-कितने होते हैं और दूसरी यह कि किस बन्धस्थानके समय कितने उदयस्थान और सत्त्वस्थान होते हैं ? गाथाके उत्तरार्ध-द्वारा उक्त स्थानोंके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाले मूलप्रकृति और उत्तरप्रकृतियोंके भङ्गोंको जाननेकी सूचना की गई है। एक जोवके एक समयमें संभव होनेवाली प्रकृतियोंके समूहका नाम स्थान है । संख्याके एक रहते हुए भी प्रकृतियोंके परिवर्तनको भंग कहते हैं। मूलप्रकृतियोंके बन्धस्थान चार हैं-आठ प्रकृतिक, सात प्रकृतिक, छह प्रकृतिक और एक प्रकृतिक । इनमेंसे आठ प्रकृतिक बन्धस्थानमें सभी मूल
1. सं० पञ्चसं० ५,३ । १. सप्ततिका० २. परं तत्र 'पयडिट्ठाणकम्मंसा' स्थाने 'पयडिसंतठाणाणि' इति पाठः । २. सं० पञ्चसं०५,३।
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