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पञ्चसंग्रह
सूक्ष्मसाम्परायक्षपकका चरमसमयभावी स्थितिबन्ध है, सो वह सादि भी है और अध्रुव भी है। इसका कारण यह है कि क्षपकके सर्वस्तोक अजघन्य स्थितिबन्धसे जघन्य स्थितिबन्धको संक्रमण होनेपर जघन्य स्थितिबन्ध सादि हुआ। तत्पश्चात् बन्धका अभाव हो जानेपर वह अध्रुव कहलाया। सूक्ष्मसाम्परायक्षपकके अन्तिम समयमें होनेवाले इस जघन्य स्थितिबन्धके सिवाय जितना भी शेष स्थितिबन्ध है, वह अजघन्य स्थितिबन्ध है। सूक्ष्मसाम्पराय-क्षपकके अन्तिम समयके स्थितिबन्धसे सूक्ष्मसाम्पराय-उपशामकके आन दुगुना है। उपशान्तकषायके उक्त छह कर्मोका बन्ध नहीं होता है। पुनः वहाँसे गिरनेवालेके अजघन्य स्थितिबन्ध सादि है। जिसने कभी बन्धका अभाव नहीं किया, उसके अनादिबन्ध है। अभव्यके उक्त कर्मोंका जितना भी स्थितिबन्ध है, वह ध्रुवबन्ध है, क्योंकि वह कभी भी न तो अपने बन्धका अभाव करेगा और न कभी जघन्यस्थितिबन्धको ही करेगा। भव्यजीवोंके उक्त कर्मोंका जितना भी स्थितिबन्ध है, वह अध्रुव है, क्योंकि वे नियमसे उसका बन्ध-विच्छेद करेंगे। इसी प्रकार मोहनीय कर्मके सादि आदिकी प्ररूपणा जानना चाहिए। केवल इतना विशेष ज्ञातव्य है कि अनिवृत्तिक्षपकके अन्तिम समयमें मोहकर्मका सर्वजघन्य स्थितिबन्ध होता है । सातों कर्मोका उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट और जघन्य स्थितिबन्ध सादि और अध्रुव होता है । इनमेंसे जघन्य स्थितिबन्धके सादि और अध्रुव होनेका कारण पहले कहा जा चुका है। सातों कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सर्वाधिक संलशसे युक्त संज्ञी मिथ्यादृष्टिके पाया जाता है, सो वह सादि
और अध्रुव है । जैसे किसी जीवने विवक्षित समयमें सातों कर्मोका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध प्रारम्भ किया। वह एक समयसे लगाकर अन्तर्मुहूर्तके पश्चात् नियमसे उसे छोड़कर अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध
प्रकार अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध सादि हआ। पुनः जघन्यसे एक अन्तर्मुहर्तके पश्चात और उत्कर्पसे अनन्त कल्पकालके पश्चात् उसने उक्त कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध किया। इस प्रकार अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध अध्रुव हो गया और उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सादि हो गया । इस प्रकार परिभ्रमण करते हुए उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धोंके करनेपर दोनों ही सादि और अध्रुव सिद्ध हो जाते हैं। सातों कौका भव्यजीवोंके अनादि ध्रुवबन्ध संभव नहीं है। आयुकर्मके उत्कृष्टादि चारों स्थितिबन्ध अध्रुव होनेके कारण अर्थात् कादाचित्क बंधनेसे सादि और अध्रुव ही होते हैं।
इस प्रकार मूल प्रकृतियोंके सादि आदि भेदोंका निरूपण किया। अब इससे आगे मूलशतककार उत्तरप्रकृतियोंके सादि आदिको प्ररूपणा करते हैं[मूलगा०५३] 'अट्ठारसपयडीणं अजहण्णो बंधचउवियप्पो दु।
सादियअधुवबंधो सेसतिए होइ बोहव्वो ॥४२१॥ णाणंतरायदसयं विदियावरणस्स होंति चत्तारि । संजलणं च अट्ठारस चदुधा अजहण्णवंधो सो ॥४२२।।
१८॥ अतः परं उत्तरप्रकृतिषु जघन्यसाधादिभेदानाह--[ 'अट्ठारस पयडीगं' इत्यादि । ] ज्ञानावरणीयपञ्चकं ५ अन्तरायपञ्चकं ५ चक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शनावरणचतुष्कं ४ संज्वलनक्रोधादिचतुष्कं ४ चेत्यष्टा
1. सं० पञ्चसं० ४, २३६ । १. शतक० ५५ ।
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