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शतक
२०३ नारकियोंको छोड़कर शेष तीन गतिके परिवर्तनमान मध्यम परिणामी जीव एकेन्द्रियजाति और स्थावरनामकर्मके जघन्य अनुभागका बन्ध करते हैं ॥४७६।। _ विशेषार्थ-परिवर्तन करके विवक्षित प्रकृतिके बाँधनेवाले जीवको परिवर्तमान कहते हैं। जैसे पहले एकेन्द्रिय और स्थावर नामको बाँधकर पुनः पंचेन्द्रिय और सनामको बाँधना । इस प्रकार परिवर्तन करते हुए भी मध्यम परिणामवाले जीवोंका प्रकृतमें ग्रहण किया गया है। [मूलगा०७६] 'आसोधम्मादावं तित्थयरं जयइ अदिरयमणुस्सो । चउगइउक्कडमिच्छो पण्णरस दुवे विसोधीए ॥४७७॥
१११५।२ । आसौधर्माद भवनत्रयजाः सौधर्मशानजा देवाश्च संक्लिष्टाः सुराः भातपनाम-जघन्यानुभागबन्धं कुर्वन्ति । अविरतमनुष्या नरकगमनाभिमुखाः तीर्थकरनाभजघन्यानुभागबन्धं कुर्वन्ति जयन्ति बध्नन्तीत्यर्थः । चातुर्गतिकमिथ्योस्कटसंक्लिष्टा मिथ्यारयः पञ्चदशप्रकृतिजघन्यानुभागबन्धं कुर्वन्ति १५। वेदद्वयजघन्यानुभागबन्धं विशुद्ध या मिथ्यादृष्टयश्चतुर्गतिजा बध्नन्ति ॥४७७॥
भवनत्रिकसे लेकर सौधर्म-ईशानकल्प तकके संक्लेश परिणामी देव मातपप्रकृतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करते हैं । नरक जानेके सन्मुख अविरत सम्यक्त्वी मनुष्य तीर्थकर प्रकृतिका जघन्य अनुभाग बन्ध करता है । (वक्ष्यमाण) पन्द्रह प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागका बन्ध चतुर्गतिके उत्कट संक्लेशवाले मिथ्यादृष्टि जीव करते हैं । तथा (वक्ष्यमाण) दो प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागको विशुद्ध परिणामवाले चतुर्गतिके जीव बाँधते हैं ॥४७७।।
११।१५।२ अब भाष्यगाथाकार उक्त पन्द्रह और दो प्रकृतियोंको गिनाते हैं
'तेजाकम्मसरीरं पंचिंदिय तसचउक्क णिमिणं च । अगुरुयलहुगुस्सासं परघायं चेव वण्णचतुं ॥४७८॥ इत्थि-णउसयवेयं अणुभायजहण्णयं च चउगइया ।
मिच्छाइट्ठी बंधइ तिव्वविसोधीए संजुत्तो ॥४७॥ ताः काः पञ्चदशादय इति चेदाऽऽह-[ 'तेजाकम्मसरीरं' इत्यादि । जस-कार्मणशरीरे द्वे २ पञ्चेन्द्रियं १ प्रस-बादर-प्रत्येक-पर्याप्तकमिति सचतुष्कं ४ निर्माणं १ अगुरुलघुत्वं उच्छासं १ परघात" प्रशस्तवर्णचतुष्कं ४ चेति चञ्चदशप्रकृतिजघन्यानुभागबन्धं चातुर्गतिजा संक्लिष्टा: कुर्वन्ति । सीवेद-नपुंसकवेदयोजघन्यानुभागबन्धं मिथ्यादृष्टिश्चातुर्गतिको जीवो बध्नाति । स कथम्भूतः ? तीव्रविशुद्धया संयुक्तः ॥४७८-४७६॥
तैजसशरीर, कार्मणशरीर, पंचेन्द्रियजाति, सचतुष्क, निर्माण, अगुरुलघु, उच्छास, परघात तथा वर्णचतुष्क, इन पन्द्रह प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागको चतुर्गतिके तीव्र संक्लेश परिणामीमिथ्यादृष्टि जीव बाँधते हैं । स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके जघन्य अनुभागको तीव्रविशुद्धिसे संयुक्त चतुर्गतिके मिथ्यादृष्टि जीव बाँधते हैं ॥४७८-४७६॥
1. सं० पञ्चसं० ४,३०४ । 2. ४, ३०५-३०७ । १. शतक० ७८।
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