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शतक
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चाहिए। अनाहारक जीवों में प्रकृतियों का बन्ध जिनेन्द्रभगवान्ने कार्मणकाययोगियों के समान कहा है ॥३८॥
विशेषार्थ-संज्ञियोंके आदिके १२ गुणस्थानोंके समान, पर्याप्त असंज्ञियोंके मिथ्यात्वगुणस्थानके समान, अपर्याप्त असंज्ञियोंके आदिके दो गुणस्थानोंके समान, तथा आहारकोंके सयोगिकेवली पर्यन्त १३ गुणस्थानोंके समान बन्धरचना जानना चाहिए। अनाहारक जीवोंकी बन्धरचना यद्यपि कार्मणकाययोगियोंके समान कही गई है, तथापि इतना विशेष जानना चाहिए कि अयोगिकेवली भी अनाहारक होते हैं, अतएव अनाहारकोंकी बन्धरचना करते समय उन्हें भी परिगणित करना चाहिए।
इस प्रकार चौदह मार्गणाओंमें प्रकृतियोंके बन्धस्वामित्वका निरूपण किया। अब कर्मप्रकृतियोंके स्थितिबन्धका निरूपण करते हैं
'उक्कस्समणुक्कस्सो जहण्णमजहण्णओ य ठिदिबंधो।
सादि अणादि य धुवाधुव सामित्तण सहिया णव होति ॥३०॥ अथ स्थितिबन्धः उत्कृष्टादिभिर्नवधा कथ्यते--[ 'उक्कस्समणुक्कसो' इत्यादि । ] स्थितिवन्धो नवधा भवति । स्थितिरिति कोऽर्थः? स्थितिः कालावधारणमित्यर्थः । उत्कृष्टस्थितिबन्धः १ । अनुत्कृष्टस्थितिबन्धः, उत्कृष्टात् किञ्चिद्धीनोऽनुस्कृष्टः २ । जघन्यस्थितिबन्धः ३ । अजघन्यस्थितिबन्धः, जघन्यात्किञ्चिदधिकोऽजघन्यः ४ । सादिस्थितिबन्धः, यः अबन्धं स्थितिबन्धं बध्नाति स सादिबन्धः ५। अनादिः स्थितिबन्धः, जीव-कर्मणोरनादिबन्धः स्यात् ६ । ध्रवः स्थितिबन्धः, भव्ये ध्रुवबन्धः; अनाद्यनन्तत्वात् ७ । अध्रुवः स्थितिबन्धः, स्थितिबन्धविनाशे अध्रवबन्धः। अबन्धे सति वा अध्रवबन्धः स्यात्, भव्येषु भवति । स्वामित्वेन बन्धकजीवेन सह है नवधा स्थितिबन्धा भवन्ति ॥३६०॥
उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य, अजघन्य, सादि, अनादि, ध्रव, अध्रव और स्वामित्वके साथ स्थितिबन्ध नौ प्रकारका है ॥३६०॥ .
विशेषार्थ-कर्मोकी आत्माके साथ नियत काल तक रहनेकी मर्यादाका नाम स्थिति है। उसके सर्वोत्कृष्ट बँधनेको उत्कृष्टस्थितिबन्ध कहते हैं। उससे एक समय आदि हीन स्थितिके बन्धको अनुत्कृष्टस्थितिबन्ध कहते हैं। कर्मोकी सबसे कम स्थितिके बंधनेको जघन्यस्थितिबन्ध कहते हैं। उससे एक समय आदि अधिक स्थितिके बन्धको अजघन्य स्थितिबन्ध कहते हैं। विवक्षित कर्मकी स्थितिके बन्धका अभाव होकर पुनः उसके बंधनेको सादि स्थितिबन्ध कहते हैं।
'बन्धव्युच्छित्तिके पूर्व तक अनादिकालसे होनेवाले स्थितिबन्धको अनादिस्थितिबन्ध कहते हैं । जिस स्थितिबन्धका कभी अन्त न हो उसे ध्रुवस्थितिबन्ध कहते हैं; जैसे अभव्यजीवके कर्मोंका बन्ध । जिस स्थितिके बन्धका नियमसे अन्त हो, उसे अध्रुवस्थितिबन्ध कहते हैं। जैसे भव्य जीवोंके कर्मोंकी स्थितिका बन्ध । कौन जीव किस जातिको स्थितिका बन्ध करता है, इस बातका निर्णय उसके स्वामित्वके द्वारा ही किया जाता है। इस प्रकार स्थितिबन्धके नौ भेद कहे गये हैं। अब मूलकर्मोके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका निरूपण करते हैं[मुलगा०४६] 'तिण्हं खलु पढमाणं उक्कस्सं अंतराइयस्सेव ।
तीसं कोडाकोडी सायरीणामाणमेव ठिदी ॥३६१॥ 1. सं० पञ्चसं० ४, 'उत्कृष्टानुत्कृष्ट' इत्यादि गद्यभागः (पृ० १३५)। 2. ४, १६७-१६८ । ब -माणाण ।
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