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प्रकृतिसमुत्कीर्तन चार वर्ण, चार रस, एक गन्ध, सात स्पर्श, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति, पाँच बन्धन और पाँच संघात; ये अट्ठाईस (२८) प्रकृतियाँ बन्धके अयोग्य होती हैं ॥६॥
अबन्ध-प्रकृतियाँ २८ । उदयके अयोग्य प्रकृतियोंका निरूपण
वण्ण-रस-गंध-फासा चउ चउ सत्तेतमणुदयपयडीओ। एए पुण सोलसयं बंधण-संघाय पंचेचं ॥७॥
अणुदयपयडीओ २६ । उदयपयडीओ १२२ । चार वर्ण, चार रस, एक गन्ध, सात स्पर्श, पाँच बन्धन और पाँच संघात; ये छब्बीस प्रकृतियाँ उदयके अयोग्य हैं। शेष एक सौ बाईस (१२२) प्रकृतियाँ उदयके योग्य होती हैं ॥७॥
अनुदय-प्रकृतियाँ २६ । उदय-प्रकृतियाँ १२२ । उद्वेलना-योग्य प्रकृतियाँ
आहारय-वेउव्विय-णिर-णर-देवाण होति जुगलाणि । सम्मत्तचं मिस्सं एया उव्वेल्लणा-पयडी ॥८॥
। १३ । आहारक-युगल (आहारकशरीर, आहारक अंगोपांग) वैक्रियिक-युगल (वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिक-अंगोपांग) नरक-यगल (नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी ) नर-युगल ( मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी ) देव-युगल (देवगति, देवगत्यानुपूर्वी) सम्यक्त्वप्रकृति, मिश्रप्रकृति (सम्यग्मिथ्यात्व)
और उच्चगोत्र ये तेरह उद्वेलना प्रकृतियाँ हैं, अर्थात् इन प्रकृतियोंका उद्वेलनसंक्रमण होता है ॥८॥
उद्वेलन-प्रकृतियाँ ११ । ध्रुबबन्धी प्रकृतियाँ
आवरण विग्घ सव्वेकसाय मिच्छत्त णिमिण वण्णचहुँ । भय जिंदाऽगुरु तेयाकम्मुवघायं धुवाउ सगदालं ॥३॥
।४७ ।
ज्ञानावरणीय पाँच, दर्शनावरणीय पाँच, अन्तराय पाँच, कषाय सोलह, मिथ्यात्व, निर्माण वर्णचतुष्क (वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श) भय, जुगुप्सा, अगुरुलघु: तैजस, कार्मण और उपघात ये सैंतालीस ध्रुवबन्धी प्रकृतियाँ है; क्योंकि बन्ध-योग्य गुणस्थानमें इनका निरन्तर बन्ध होता है ।।६।।
ध्रुवबन्धी प्रकृतियाँ ४७ । अध्रुवबन्धी प्रकृतियाँ
"परघादुस्सासाणं आयवउजोयमाउ चत्तारि । तित्थयराहारदुगं एगारह होंति सेसाओ ॥१०॥
परघात, उच्छास, उद्योत, चारों आयु कर्म, तीर्थकर, आहारकशरीर और आहारकअंगोपांग ये ग्यारह शेष अर्थात् अध्रुवबन्धी प्रकृतियाँ हैं ॥१०॥
अध्रुवबन्धी प्रकृतियाँ ११ । 1. सं० पञ्चसं० २, ३८ । 2. २, ४० । 3. २, ४२-४३ । 4. २, ४४ ।
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