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पञ्चसंग्रह
पश्चत
चाहिए । पुनः भाज्योंके गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो, उसमें भागहारोंके गुणा करनेसे उत्पन्न राशिका भाग देना चाहिए। इस प्रकार जो प्रमाण आवे, तत्प्रमाण ही विवक्षित स्थानके भंग जानना चाहिए। इसी नियमको ध्यान में रखकरके ग्रन्थकारने मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानोंमें संभव काय-वधके संयोगी भंगोंका निरूपण किया है, जिनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-आदिके चार गुणस्थानोंमें षटकायिक जीवोंका वध सम्भव है, अतएव छह, पाँच, चार, तीन, दो और एक, इन भाज्य अंकोंको क्रमसे लिखकर पुन: उनके नीचे एक, दो, तीन, चार, पाँच और छह, इन भागहार अंकोंको लिखना चाहिए। इनकी अंक संदृष्टि इस प्रकार होती है
यहाँपर पहली भाज्यराशि छहमें पहली हारराशि एकका भाग देनेसे छह आते हैं, अतएव एकसंयोगी भंगोंका प्रमाण छह होता है। पहली भाज्यराशि छहका अगली भाज्यराशि पाँचसे गुणा करनेपर गुणनफल तीस आता है, तथा पहली हारराशि एकका अगली हारराशि दोसे गुणा करनेपर हारराशिका प्रमाण दो आता है। इस दो हारराशिका भाज्यराशि तीसमें भाग देनेपर भजनफल पन्द्रह आता है, यही द्विसंयोगी भंगोंका प्रमाण है। इसी क्रमसे त्रिसंयोगी भंगोंका प्रमाण बीस, चतुःसंयोगी भंगोंका पन्द्रह, पंचसंयोगी भंगोंका छह और षट्संयोगी भंगोंका प्रमाण एक आता है। इन संयोगी भंगोंकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है--
६ १५ २० १५६ १ यह उपर्युक्त गाथासूत्र अन्य बन्ध-प्रत्ययोंके भंग जाननेके लिए बीजपदरूप है, इसलिए शेष बन्ध-प्रत्ययोंके भी भंग इसी उपर्युक्त प्रकारसे सिद्ध करना चाहिए ।
यहाँ इतना विशेष समझना चाहिए कि आगे मिथ्यात्वादि गुणस्थानों में उत्तरप्रत्ययोंकी अपेक्षा जो भंग विकल्प बतलाये हैं, उनके लानेके लिए केवल काय-अविरतिके भेदोंकी अपेक्षा गुणकाररूपसे संख्या-निर्देश करना पर्याप्त नहीं है, किन्तु उन काय-अविरति-भेदोंके जो एक-संयोगी, द्वि-संयोगी आदि भंग होते हैं, गुणकाररूपसे उन भंगोंकी संख्याका निर्देश करने पर ही सर्व भंग-विकल्प आते हैं, इसलिए यहाँपर छह काय-अविरतियोंकी अपेक्षा एक-संयोगी आदि भंग लाकर उन्हें काय-गुणकार-संज्ञा दी गई है। इस प्रकारके काय-विराधना-सम्बन्धी गुणकार तिरेसठ होते हैं, जो कि मिथ्यादृष्टि आदि चार गुणस्थानोंमें पाये जाते हैं। इनका विशेष विवरण संस्कृत टीकामें दिया गया है जिसका अभिप्राय यह है कि जब कोई जीव क्रोधादि कषायोंके वश होकर षट-कायिक जीवोंमेंसे एक-एक कायिक जीवको विराधना करता है, तब एक संयोगी छह भंग होते हैं। जब छह कायिकोंमेंसे किन्हीं दो-दो कायिक जीवोंकी विराधना करता है, तब द्विसंयोगी पन्द्रह भंग होते हैं। इसी प्रकार किन्हीं तीन-तीन कायिक जीवोंकी विराधना करनेपर त्रिसंयोगी भंग बीस, चार-चारकी विराधना करनेपर चतुःसंयोगी भंग पन्द्रह, पाँच-पाँचकी विराधना करनेपर पंच-संयोगो भंग छह होते है। तथा एक साथ छहा कायिक जीवाकी विराधना करनेपर षट्संयोगी भंग एक होता है। इस प्रकारसे उत्पन्न हुए एक-संयोगी आदि भंगोंका योग तिरेसठ होता है।
आवलिय मेत्तकालं अणंतबंधीण होइ णो उदओ । अंतोमुहुत्त मरणं मिच्छत्तं दंसणा पत्ते* ॥१०३॥
1. सं० पञ्चसं० ४, ४१-४२ । * द पत्तो ।
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