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शतक
न्तराश्रयणात् । तं मिश्रं विना मिथ्यागादि-प्रमत्तान्ता पञ्च निजाऽऽयुषि भद्धाकालविशेषाऽऽवलिमात्रेऽवशिष्ट सति आयुर्वर्जितसमकर्माण्युदीरयन्ति उदीरणां कुर्वन्तीत्यर्थः ॥२२३॥ __ अब ग्रन्थकार इसी अर्थका स्पष्टीकरण करते हैं
मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर प्रमत्तसंयत गुणस्थान तकके जीव आठों ही कोंकी उदीरणा करते हैं । किन्तु अपने-अपने आयुकालमें आवलीमात्र शेष रहने पर मिश्रगुणस्थानवर्तो जीव आयुकर्मके बिना शेष सात कोंकी उदीरणा करते हैं। मिश्रगुणस्थानवर्ती जीव आठों ही कर्मोकी उदीरणा करते हैं क्योंकि आयुके अन्तर्मुहूर्त शेष रह जाने पर सम्यग्मिथ्यात्वगुणस्थान
छूट जाता है अर्थात् वह जीव अन्य गुणस्थानको प्राप्त हो जाता है ॥२२३॥ [मूलगा० २६]'वेयणियाउयवज्जे छकम्मुदीरांति चत्तारि ।
अद्धावलियासेसे सुहुमोदीरड पंचेव ॥२२४॥ चत्वारोऽप्रमत्ताऽपूर्वकरणाऽनिवृत्तिकरण-सूचमसाम्परायलमस्थाः वेदनीयायुयं वर्जयित्वा पट कर्माण्युदीरयन्ति, पण्णां कर्मणां उदीरणां कुर्वन्तीत्यर्थः । सूचमसाम्परायस्तु, अद्धावलिकाशेषे आवलिकामात्रेऽवशिष्टे सति आयोहवेदनीयकर्मत्रिकवर्जितशेषकर्मपञ्चकं उदीरयन्ति ॥१२॥
अप्रमत्तसंयतसे आदि लेकर चार गुणस्थानवी जीव वेदनीय और आयुकर्मको छोड़कर शेष छह कर्मोकी उदीरणा करते हैं । सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके कालमें आवलीमात्र कालके शेष रह जाने पर सूक्ष्मसाम्परायसंयत वेदनीय, आयु और मोहकर्मको छोड़कर शेष पाँच कर्मोकी उदीरणा करते हैं ॥२२४॥ [मूलगा० ३०] वेयणियाउयमोहे वञ्जिय उदीरंति दोण्णि पंचेव ।
अद्धावलियासेसे णामं गोयं च अकसाई ॥२२॥ __ द्वौ उपशान्त-क्षीणकपायौ वेदनीयाऽऽयुर्मोहनीयत्रिकं वर्जयित्वा शेषकर्मपञ्चकमुदीरयतः तद्गुणस्थानयोरावलिकालेऽवशिष्टे नाम गोत्रकर्मद्वयमुदीरयतः ।।२२५॥
उपशान्तकपाय और क्षीणकषाय, ये दो गुणस्थानवी जीव वेदनीय, आयु और मोहको छोड़कर शेष पांचों ही कर्मोकी उदीरणा करते हैं। किन्तु अकषायी अर्थात् क्षीणकषायी जीव क्षीणकषाय गुणस्थानके कालमें आवलीमात्र कालके शेष रहने पर नाम और गोत्र इन दो को
की उदीरणा करते हैं ॥२२॥ [मुलगा० ३१] उदीरेइ णाम-गोदे छकम्म विवजिए सजोगी दु ।
वदि॒तो दु अजोगी ण किंचि कम्मं उदीरेइ ॥२२६॥ सयोगी वर्तमानः सन् कर्मषटक-वर्जिते नाम-गोत्रे द्वे कर्मणी उदीरयति २ । पुनः अयोगी किमपि कर्म उदीरयति न, उदीरणां न करोतीत्यर्थः ॥२२६॥
सयोगिकेवली जिन शेप छह कर्मोको छोड़कर नाम और गोत्र इन दो ही कर्मोकी उदीरणा करते हैं। चार अघातिया कर्मो के उदयमें वर्तमान भी अयोगी जिन योगके अभोव होनेसे किसी भी कर्मकी उदीरणा नहीं करते हैं ।।२२६॥
............... ............ . 1. सं० पञ्चसं० ४, ८६ । 2. सं० पञ्चसं० ४, ६० । 3. सं० पञ्चसं० ४, ६१ ।
१. शतक० ३० । २. शतक० ३१ । ३. शतक० ३२ । २३
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