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शतक
१०५
बन्धस्थान चार होते हैं। उदयके स्थान तीन होते हैं, किन्तु उदीरणाके स्थान पाँच होते हैं। इनके वर्णन करनेके पश्चात् इनके संयोगी स्थानोंको कहेंगे ॥२१७॥
छह गुणस्थानों में जीव सात या आठ प्रकारके कर्मोका बन्ध करते हैं। तीन गुणस्थानोंमें सात प्रकारके कर्मोका बन्ध करते हैं। एक गुणस्थानमें छह प्रकारके कर्मोका बन्ध करते हैं। तीन गुणस्थानों में एक कर्मका बन्ध करते हैं और एक गुणस्थान अबन्धक है अर्थात् उसमें किसी भी कर्मका बन्ध नहीं होता ॥२१८॥
अब भाष्यकार उक्त मूलगाथाके अर्थ का स्पष्टीकरण करते हुए बन्धस्थानोंका निरूपण करते हैं
'छप्पढमा बंधंति य मिस्सूणा सत्तकम्म अट्ठ वा।
आऊणा सत्तेव य मिस्सापुव्वाणियट्टिणो णेया ॥२१॥ मोहाऊणं हीणा सुहुमो बंधेइ कम्म छच्चेव । वेयणियमेय तिण्णि य बंधंति अबंधओजोगो ॥२२०॥
ད ད 。དདདད तदेव गाथाबन्धेन विवृणोति-मिश्रोनाः षट् प्रथमा: अप्रमत्तान्ताः विनाऽऽयुः सप्तविधं तत्सहितमष्टविधं च बध्नन्ति । मिश्राऽपूर्वकरणऽनिवृत्तिकरणा आयुरूनं सप्तविधं कर्म बध्नन्ति । तत्त्रयः आयुर्बन्धहोना ज्ञेयाः ॥२१॥
सूचमसाम्परायस्थो मुनिरायुर्मोहिनीयकर्मद्वयहीनानि षडेव कर्माणि बन्धाति, ततस्त्रयः उपशान्तक्षीणकपाय-सयोगजिना एक सातावेदनीयं बन्धन्ति । अयोगी अबन्धकः स्यात् ॥२२०॥
मि० सा० मि० अ० दे० प्र० भ० अ० स० सू० उ० पी० स० अ०
मिश्र गुणस्थानको छोड़कर पहलेके छह गुणस्थानवी जीव आयुके विना सात कोका, अथवा आयु-सहित आठ कर्मोंका बन्ध करते हैं। मिश्र, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण; इन तीन गुणस्थानोंके जीव आयुकर्मके विना सात कर्मोका बन्ध करनेवाले जानना चाहिए । सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानवी जीव मोह और आयुके विना शेष छह कर्मोका बन्ध करते हैं। ग्यारहवें बारहवें और तेरहवें गुणस्थानवी जीव एक वेदनीय कर्मका ही बन्ध करते हैं। अयोगिकेवली भगवान अबन्धक कहे गये हैं ॥२१६-२२०॥
इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है
गु०-मि० सा० मि० अ० दे० प्र० अ० अ० अ० सू० उ० क्षी० स० अ० बं०
५० ८ ८ ० ८ ८ ८ ८ ० ० ० ० ० ० ० अब उदयस्थानोंका निरूपण करते हैं--- [मूलगा० २७] अट्टविह-सत्त-छ-बंधगा वि वयंति अट्टयं णियमा।
*उवसंतखीणमोहा मोहूणाणि य जिणा अघाईणि ॥२२१॥
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1. सं० पञ्चसं० ४, ८४-८५। 2. ४, ८६ । १. शतक० २८ । परं तत्रोत्तरार्धे 'एगविहबन्धगा पुण चत्तारि व सत्त वेएंति' इति पाठः। * मूलप्रतौ ईहक पाठ:-'एगविहबंधगा पुण चत्तारि व सत्त चेव वेदंति'।
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