________________
२२८
पञ्चसंग्रह
.. अथ देवगतौ बन्धयोग्यप्रकृतीर्गाथाद्वादशेनाऽऽह--[ 'सुहुमाहारभपुण्ण'-इत्यादि ।] सूचमं १ आहारकद्विकं २ अपर्याप्तं १ वैक्रियिकवैक्रियिकाङ्गोपाङ्ग-देवगति-तदानुपूर्य-नरकगति-तदानुपूर्व्यमिति वैक्रियिकषत ६ नरकायुः १ देवायुः १ साधारणं १ विकलत्रयं ३ चेति षोडश १६ प्रकृतिरहिताः अन्याश्चतुरुत्तरशतं १०४ बन्धयोग्यप्रकृतीर्देवा: सामान्यतया बध्नन्ति । ता एव १०४ तीर्थकरोना १०३ मिथ्यादृष्टिदेवा बध्नति । तु पुनः स्थावराऽऽतपौ २ एकेन्द्रियजातिः १ हुंडकसंस्थानं १ नपुंसकवेदं १ मिथ्यात्वासम्प्राप्तसृपाटिकासंहनने २ एवं सप्तप्रकृतिभिः रहितास्ताः षण्णवतिप्रकृतीः ६६ सास्वादनस्था देवा बध्नन्ति । सासादनव्युच्छिन्नप्रकृति २५ मनुष्यायुरहितास्ता एव ७० मिश्रगुणस्थदेवा बध्नन्ति । ता एव सप्तति ७० . तीर्थकर-मनुष्यायुःसहिता इति द्वासप्तति ७२ प्रकृतीरसंयतसम्यग्दृष्टिदेवा बध्नन्ति । ॥३४२१-३४५॥
.
मि. सा. मि० भ० । ७
०१० सामान्येन देवगतौ-
१०३१६७०७२
२५
४.r
सूक्ष्म, आहारकद्विक, अपर्याप्त, वैक्रियिकषट्क, नरकायु, देवायु, साधारण और विकलेन्द्रियत्रिक; इन सोलहके विना शेष १०४ प्रकृतियोंको सामान्यतया देव बाँधते हैं। उनमें मिथ्यादृष्टि देव तीर्थकरके विना १०३ प्रकृतियोंको बाँधते हैं। सासादन सम्यग्दृष्टि देव स्थावर, आतप, एकेन्द्रियजाति, हुंडकसंस्थान, नपुंसकवेद, मिथ्यात्व और सृपाटिका संहनन; इन सातसे रहित शेष ६६ प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं। मिश्रगुणस्थानवर्ती देव सासादनगुणस्थानमें विच्छिन्न होनेवाली २५ और मनुष्यायु इन २६ से रहित शेष ७० प्रकृतियोंको बाँधते हैं। असंयत देव तीर्थकर और मनुष्यायु सहित उक्त प्रकृतियोंका अर्थात् ७२ का बन्ध करते हैं ॥३४२३-३४५३॥
(देखो संदृष्टिसंख्या १६) अब देवविशेषों में बन्धादिका निरूपण करते हैं
तिकायदेव-देवी सोहम्मीसाण देवियाणं च ॥३४६।। मिच्छाईतिसु ओघो अजई तित्थयररहियाओ। सामण्णदेवभंगो सोहम्मीसाणकप्पदेवाणं ॥३४७॥
एत्तो उवरिल्लाणं देवाण जहागमं वोच्छं। भवनवासि-व्यन्तर-ज्योतिष्कत्रयोत्पन्नदेव-देवीनां सौधर्मेशानोत्पन्नदेवीनां च मिथ्यात्वादिगुणस्थानेषु ओघवत । मिथ्यारष्टौ १०३ सासादने १६ मिश्र ७० असंयते तीर्थकरत्वं विना ७१।
मि. सा. मि० अ०
१३
सामान्यदेवभङ्गरचनावत्सौधर्मेशानकल्पजदेवानां मिथ्यादृष्टौ । अत उपरितनानां देवानां बन्धयोग्य. प्रकृतीर्यथागमानुसारेण वक्ष्येऽहम् ॥३४५३-३४७१॥
भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी, इन तीन कायके देव और देवियोंके; तथा सौधर्म और ईशान कल्पोत्पन्न देवियोंके मिथ्यात्वादि तीन गुणस्थानों में प्रकृतियोंका बन्ध ओघके समान क्रमशः १०३, ६६ और ७० जानना चाहिए। असंयतगुणस्थानवर्ती उक्त देव और देवियाँ तीर्थकररहित ७१ प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं। सौधर्म-ईशान-कल्पवासी देवोंके प्रकृतियांका बन्ध सामान्य देवोंके समान जानना चाहिए। अब इससे ऊपरके कल्पवासी देवोंके बन्धादिको आगमके अनुसार कहता हूँ॥३४५३-३४७३॥
( देखो संदृष्टिसंख्या २०)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org