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शतक
२२१
अब नवें गुणस्थानमें, बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियोंके नाम बतलाते हैं
'पुरिसं चउसंजलणं पंच य पयडी य पंचभायम्मि ।
अणिअट्टी-अद्वाए जहाकम बंधवुच्छेओ ॥३२२॥ __ अनिवृत्तिकरणस्याद्वाभागेषु पञ्चसु यथाक्रमं [ बन्ध- ] व्युक्छेदः । प्रथमभागे पुंवेदः १ । द्वितीयभागे संज्वलनक्रोधः । तृतीयभागे संज्वलनमानः १ । चतुर्थभागे संज्वलनमाया । पञ्चमे भागे संज्वलनलोभः १ बन्धव्युच्छिन्नः ॥३२२॥
अनिवृत्तिकरण कालके पाँच भागों में पुरुषवेद और चार संज्वलनकषाय, ये पाँच प्रकृतियाँ यथाक्रमसे एक-एक करके बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं ॥३२२।। अब दश गुणस्थानमें बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियों के नाम बतलाते हैं
णाणंतरायदसयं दंसणचत्तारि उच्च जसकित्ती ।
एए सोलह पयडी सुहुमकसायम्मि वोच्छेओ ॥३२३॥ ज्ञानावरणपञ्चकं ५ अन्तरायपञ्चकं ५ चक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शनावरणचतुष्कं ४ उच्चैर्गोत्रं ५ यशस्कीर्तिः १ इत्येताः पोडश प्रकृतयः सूचमसाम्परायस्य चरमसमये [ बन्धाद् ] व्युच्छिन्नाः १६ ॥३२३॥
ज्ञानावरणकी पाँच, अन्तरायकी पाँच, दर्शनावरणकी चार, उच्चगोत्र और यश कीत्ति ये सोलह प्रकृतियाँ सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानके अन्तिम समयमें बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं ॥३२३॥ अब तेरहवे गुणस्थानमें बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतिका निर्देश कर प्रकृत अर्थका उपसंहार करते हैं[मूलगा०४७] सायंतो जोयंतो एत्तो पाएण पत्थि बंधो त्ति ।
णायव्यो पयडीणं बंधो संतो अणंतो य॥३२४॥ ___ सातायाः अन्तो व्युच्छेदः योगान्तः सयोगपर्यन्तः । इतः परं प्रायेण गुणस्थानकेन बन्धो नास्तीति उपशान्तादिपु ज्ञातव्यं प्रकृतीनां सन्तः अबन्धः अनन्तः व्युच्छेदः । चकाराद् बन्धाबन्धो ज्ञातव्यः ॥३२४॥
योगके अन्ततक सातावेदनीयकर्मका बन्ध होता है, अर्थात् ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थानमें एक सातावेदनीयकर्म ही बँधता है। तेरहवें गुणस्थानके अन्तमें उसकी भी बन्धसे व्युच्छित्ति हो जाती है । इससे आगे चौदहवें गुणस्थानमें योगका अभाव हो जानेसे फिर किसी भी कर्मका बन्धका नहीं होता है। इस प्रकार चौदह गुणस्थानों में प्रकृतियोंका सान्त अर्थात् बन्धव्युच्छित्ति और अनन्त अर्थात् बन्ध जानना चाहिए ।।३२४।। (देखो संघष्टि संख्या १४) विशेषार्थ-इस गाथाके चतुर्थ चरणके पाठ दो प्रकारके मिलने हैं-१ 'बंधो संतो'
२ 'बन्धस्संतो अणंतो य' । प्रथम पाट प्रकृत गाथामें दिया हुआ है और द्वितीय पाठ शतक प्रकरणकी गाथाङ्क ५० और गो० कर्मकाण्डकी गाथाङ्क १२१ में मिलता है। शतकचूर्णिमें 'अहवा सन्तो बंधो अणंतो य भव्वाभव्वे पडुच्च' कहकर 'बंधो संतो अणंतो य' पाठको भी स्वीकार किया है और तदनुसार शतकप्रकरणके संस्कृत टीकाकारने उसका अर्थ इस प्रकार किया है
1. सं० पञ्चसं० ४, ४, ''वेद संज्वाल' इत्यादि गद्यांशः (पृ० १२६ )। 2. ४, 'उच्चगोत्रयशो'
इत्यादि गद्यांशः (पृ० १२६-१३०)। 3. ४, 'शान्तक्षीणकषायौ व्यतीत्यकस्य सातस्य'
इत्यादिगद्यांशः (पृ० १३०)। १. शतक० ५० ।
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