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पञ्चसंग्रह
मिथ्यादृष्टिर्भूत्वाऽस्मिन् अन्यस्मिन् वा भवे द्वाविंशतिं बध्नातीति एकविंशत्तिबन्धे एको भुजाकारबन्धः एवं भुजाकाराः विंशतिः २० ॥२५२३॥
नौ आदि स्थानोंका बन्ध करता हुआ जीव अधस्तन सर्व स्थानोंका बन्ध करता है ।। २५२३ ।।
विशेषार्थ - नौ प्रकृतिक स्थानका बन्ध करनेवाला जीव नीचे उतरकर पाँचवें गुणस्थान में पहुँचनेपर तेरहका, चौथे गुणस्थान में पहुँचने पर सत्तरहका, दूसरे गुणस्थान में पहुँचने पर इक्कीसका और पहले गुणस्थान में पहुँचने पर बाईसका बन्ध करता है । इसी प्रकार तेरह प्रकृतिक स्थानका बन्ध करनेवाला जीव नीचे उतरता हुआ सत्तरह, इक्कीस और बाईसका बन्ध करता है । सत्तरह प्रकृतिका बाँधनेवाला नीचे उतरकर इक्कीस और बाईसका बन्ध करता है, तथा इक्कीसवाला नीचे उतरकर बाईसका बन्ध करता है । इस प्रकार ये सर्व मिल दश भुजाकार होते हैं । इनमें ऊपर बतलाये गये दश भुजाकारोंके मिला देनेपर समस्त भुजाकार बन्धोंकी संख्या बीस हो जाती है ।
अब मोहकर्मके ग्यारह अल्पतर बन्धोंका तथा दो अवक्तव्य भंगोंका निरूपण करते हैं'वावीसं बंधतो सत्तरस तेरस णवाणि बंधे
॥ २५३ ॥
अप्पयरा
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'सत्तरसं बंधतो बंधइ तेरह णवाणि अप्पयरो । तेरहविबंधतो बंध णवयं तमेव पणयं वा ॥ २५४ ॥
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अप्पयरा-- १३ ६ ५
५ ४ ३ २ ४ ३ २ 9
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तं बंधतो चउरो बंधइ तं चिय तियं दुयं तमेक्कं च । वरदबंध हेट्ठा एक्कं सत्तरस सुरेस अवत्तव्या ॥२५५॥
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अप्पयरा
अथैकादशाल्पतरबन्धा उच्यन्ते -- [ 'वावोसं बंधंतो' इत्यादि । ] अल्पतरबन्धास्त्रयोऽनादिः सादिर्वा मिथ्यादृष्टिः करणत्रयं कुर्वन्ननिवृत्तिकरणलब्धिचरमसमये द्वाविंशतिकं बध्नन् अनन्तरसमये प्रथमो - पशमसम्यग्दृष्टिर्भूत्वा, वा सादिमिथ्यादृष्टिरेव सम्यक्त्वप्रकृत्युदये सति वेदकसम्यग्दृष्टिर्भूत्वा भूयोऽप्यप्रत्याख्यानोदयेऽसंयतो भूत्वा सप्तदशकं १७ बध्नाति । वा प्रत्याख्यानोदये देशसंयतो भूत्वा त्रयोदशकं १३
बध्नाति । वा संज्वलनोदयेऽप्रमत्तो भूत्वा नवकं बध्नातीति द्वाविंशतिके त्रयोऽल्पतरबन्धाः
१३
६
र्वेदकसम्यग्दृष्टिः क्षायिक सम्यग्दष्टिर्वाऽसंयतः सप्तदशकं १७ बध्नन् देशसंयतो भूत्वा त्रयोदशकं १३, वा
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२२
१७
१७
प्रमत्तो भूत्वा नवकं ह च बध्नातीति सप्तदशकबन्धे द्वौ अल्पतरौ १३ । पुनस्त्रयोदशकबन्धको १३ प्रमत्तो
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1. सं० पञ्चसं० ४, १३० | 2. ४, १३१ । ३. ४, १३२ ।
। पुन
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