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शतक
• मिथ्यात्व गुणस्थान में बाईस प्रकृतिक स्थानका बन्ध होता है। वे बाईस प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं - मिथ्यात्व, सोलह कषाय, तीन वेदों में से एक वेद, हास्यादि दो युगलोंमेंसे एक युगल और भय - जुगुप्सा । दूसरे गुणस्थानमें मिथ्यात्वको छोड़कर शेष इक्कीस प्रकृतिरूप स्थानका बन्ध होता है । यहाँ नपुंसक वेदका भी बन्ध नहीं होता है, अतएव दो वेदों में से किसी एक वेदको ही लेना चाहिए ॥ २४८ ॥
१।१६।१।२।२ मेलिया २२ मिच्छम्मि २२ । पच्छायारो
पत्थायारो जहा
प्रस्तारः
२
२ २
१ १०
४ ४ ४ ४
मिथ्यात्वे प्रस्तारः
। भंगा ४ ।
४
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इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार
२ भ
२
9
२
२ २ 9 १०
४ ४ ४ चत्वारः ४ ।
२
१
४ ४ ४ ४
मि० १
1. सं० पञ्चसं० ४, १२० । + ब -स्सेsवि
२ २ २
9 9 १
४ ४ ४ ४
9
२ २
१ तद्भङ्गाः हास्यारतिद्विकाभ्यां वेदश्रये हते पट् 1
६
सासादने बोडश कषायाः १६ वेदयोर्मध्ये एकतरवेदः १ हास्यादियुग्मं २ २ २ मीलिताः २१ । तद्भङ्गाः वेदद्वययुग्मजाः भयद्वयम् २ १६ १
१८६
भंगा ६ । सासणे २१ ।
मि०
कषाय वेद हा०
भय०
हैं- १ + १६ + १ +२+२=२२
के
प्रस्तारका आकार मूलमें दिया है । मिथ्यात्व गुणस्थान में तीन वेदोंसे हास्यादि दो युगलोंगुणा करने पर छह भंग होते हैं । सासादन गुणस्थान में मिथ्यात्व के विना शेष इक्कीस प्रकृतियोंका बन्ध होता है । प्रस्तारकी रचना मूलमें दी है। यहाँ नपुंसकवेदके बन्ध न होनेसे दो वेदों को हास्यादि दो युगलों से गुणा करने पर चार भंग होते हैं ।
'पढमचउक्के णित्थी-रहिया मिस्से अविरय सम्मेय । विदिणा देसे छठे तहऊण सत्तमट्ठ य ॥२४६॥
मिश्र गुणस्थाने अविरतसम्यग्दृष्टौ च अनन्तानुबन्धि-प्रथम चतुष्कं विना शेषाः सप्तदश । स्त्रीवेदः सासादने विच्छिन्नः पुंवेदः एक एव १ | देशसंयमेऽप्रत्याख्यानद्वितीयचतुष्कं विना त्रयोदश १३ । षष्ठे प्रमत्तेऽप्रमत्ते सप्तमे अष्टमेऽपूर्वकरणे च प्रत्याख्यानतृतीयचतुष्कं विना शेषा नवैव १ ॥२४३॥
मिश्र और अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान में प्रथम चतुष्क अर्थात् अनन्तानुबन्धी चतुष्कके विना सत्तरह प्रकृतियोंका बन्ध होता है । यहाँ पर स्त्रीवेदका बन्ध नहीं होता, केवल एक पुरुष -
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