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पञ्चसंग्रह
बायर
हैं। शेष तीन गतियोंमें दो-दो ही जीवसमास जानना चाहिए। इस प्रकार सर्व मार्गणास्थानोंमें भी जीवसमासस्थानोंको लगा लेना चाहिए ॥६-७॥ अब चौदह मार्गणाओंमें जीवसमासोंको बतलाते हैं
णिरय-णर-देवगईसुं सण्णी पञ्जत्तया अपुण्णा य । एइंदियाई चउदस तिरियगईए हवंति सव्वे वि ॥८॥ एइंदिएसु बायर-सुहुमा चउरो अपुग्ण पुण्णा य । पजत्तियरा वियल, सयल, सण्णी असण्णिदरा पुणियरा ॥३॥ पंचसु थावरकाए बायर सुहुमा अपुण्ण पुण्णा य ।
वियले पज्जत्तियरा सयले सण्णियर पुणियरा ॥१०॥ नरकगतो पञ्चेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्ताऽपर्याप्तौ द्वौ द्वौ, मनुष्यगत्यां पञ्चेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तौ द्वौ द्वौ, देवगतौ पञ्चेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्ताऽपर्याप्तौ द्वौ द्वौ, तिर्यग्गत्यां एकेन्द्रियादिचतुर्दशजीवसमासाः सर्वे १४ भवन्ति । ते के?
दिय वि-ति-चउरक्खा असण्णि-सण्णी य। पज्जत्ताऽपज्जत्ता जीवसमासा चउदसा होति ॥२॥ इति । १ गतिमार्गणायां जीवसमासाः न० ति० म० दे० १ गातमागणाया जावतमाला' २ १४ २ २
इन्द्रियमार्गणायां एकेन्द्रियेषु बादर-सूचमैकेन्द्रियौ पर्याप्ताऽपर्याप्तौ इति चत्वारः ४ । विकले विकलत्रये द्वीन्द्रिये ब्रीन्द्रिये चतुरिन्द्रिये च पर्याप्तेतरौ निजपर्याप्ताऽवपर्याप्तौ द्वौ द्वौ प्रत्येकं भवतः २, २,२ । सकले पञ्चेन्द्रिये संश्यऽसंज्ञि-पर्याप्ताऽपर्याप्ताश्चत्वारः ४ । ॥६॥
२ इन्द्रियमार्गणायां जीवसमासाः-ए० द्वी
कायमार्गणायां पृथिव्यादिपञ्चसु प्रत्येकं बादर-सूचमौ पर्याप्ताऽपर्याप्तौ इति चत्वारः स्थावरकाये जीवसमासा भवन्ति । विकले विकलत्रये पर्याप्ताऽपर्याप्ता इति षट् । सकले पञ्चेन्द्रिये संश्यऽसंज्ञि-पर्याप्ताsपर्याप्ता इति चत्वारः । एवं दश जीवसमासाः १० वसकाये भवन्ति ॥१०॥
० ० ३ कायमार्गणायां जीवसमासाः-पृ० अ० ते. वा० ३ कायमागणाया जावसमासा-४ ४ ४ ४ ४ १०
नरक, मनुष्य और देव इन तीन गतियोंमें संज्ञि-पर्याप्तक और संज्ञि-अपर्याप्तक ये दो-दो जीवसमास होते हैं। तिर्यग्गतिमें एकेन्द्रियको आदि लेकर संज्ञिपंचेन्द्रिय तकके जीवोंकी अपेक्षा सर्व ही चौदह जीवसमास होते हैं (१) । इन्द्रियमार्गणाकी अपेक्षा एकेन्द्रियों में बादर-पर्याप्त, बादरअपर्याप्त, सक्ष्म-पर्याप्त और सूक्ष्म-अपर्याप्त ये चार जीवसमास होते हैं। विकलेन्द्रियोंमें द्वीन्द्रिय पर्याप्त, द्वीन्द्रिय-अपर्याप्त; त्रीन्द्रिय-पर्याप्त, त्रीन्द्रिय-अपर्याप्त; चतुरिन्द्रिय-पर्याप्त और चतुरिन्द्रियअपर्याप्त ये छह जीवसमास होते हैं। पंचेन्द्रियों में असंज्ञि-पर्याप्त, असंज्ञि-अपर्याप्त; संज्ञि-पर्याप्त और संज्ञि-अपर्याप्त ये चार जीवसमास होते हैं (२)। कायमार्गणाकी अपेक्षा पाँचों स्थावरकायोंमेंसे प्रत्येकमें बादर-सूक्ष्म और पर्याप्त-अपर्याप्त; ये चार-चार जीवसमास होते हैं। त्रसजीवोंमेंसे विकलत्रयों में प्रत्येकके पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो-दो जीवसमास होते हैं। तथा सकलेन्द्रियोंमें संज्ञी, असंज्ञी तथा उनके पर्याप्त और अपर्याप्त ऐसे दो-दो मिलकर चार जीवसमास होते
वि-वियले । ब सयले।
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