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तृतीय अधिकार कर्मस्तव
मंगलाचरण और प्रतिज्ञा
[ मूलगा ० १ ] 'णमिऊण अणंतजिणे तिहुअणवरणाण- दंसणपईवे । धोदय संतयं वोच्छामि वं + णिसामेह ॥१॥
त्रिभुवनको प्रकाशित करनेके लिए उत्कृष्ट ज्ञान-दर्शनरूपी प्रदीपस्वरूप अनन्त जिनोंको नमस्कार करके कर्मों के बन्ध, उदय और सत्त्वसे युक्त स्तबको कहूँगा, सो ( हे जिज्ञासु जनो, तुम लोग ) सुनो ॥१॥
विशेषार्थ - जिसमें विवक्षित विषयसे सम्बन्ध रखनेवाले सभी अंगों का विस्तार या संक्षेपसे वर्णन किया जावे उसे स्तव कहते हैं । प्रकृत प्रकरण में कर्म-सम्बन्धी बन्ध, उदय, उदीरणा आदि सभी विषयों का साङ्गोपाङ्ग वर्णन किया गया है, इसलिए इसका नाम कर्मस्तव है । बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्त्वका स्वरूप
'कंचन - रुपपदवाणं एयत्तं जेम अणुपवेसो त्ति । अणोपवेसणं तह बंधं जीव-कम्माणं ॥२॥
घण्णस्स संगहो वा संतं जं पुव्वसंचियं कम्म । 'भुंजणकालो उदओ उदीरणाऽपक्कपाचणफलं वः ॥३॥
जिस प्रकार कांचन (स्वर्ण) और रूपा (चाँदी) द्रव्यके प्रदेश परस्पर एक-दूसरे में अनुप्रविष्ट होकर एकत्वको प्राप्त हो जाते हैं, उसी प्रकार जीव और कर्मों के परस्पर एक-दूसरेमें प्रविष्ट हुए प्रदेशोंके एकमेक होकर बंधनेको बन्ध कहते हैं । धान्यके संग्रहके समान जो पूर्व-संचित कर्म हैं, उनके आत्मामें अवस्थित रहनेको सत्त्व कहते हैं । कर्मों के फल भोगनेके कालको उदय कहते हैं । तथा अपक कर्मों के पाचनको उदीरणा कहते हैं ॥। २-३||
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1. सं० पञ्चसं० ३ १ । २.३, २, ६ । ३. ३, ५ । . ३, ३-४ ।
१. कर्मस्त० गा० १, परं तत्र 'अनंत जिणे' इति स्थाने 'जिणवरिंदे' इति पाठः ।
* द व पयं । + तुलना-णमिऊण नेमिचंदं असहाय परक्कमं महावीरं । बंधुदयसत्तजुत्तं ओघादेसे थवं वोच्छं | गो० क० ८७ X द ब धन्नस्स । + द ब वा ।
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