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पञ्चसंग्रह गुणस्थानोंमें मूलप्रकृतियोंके सत्त्वका निरूपण
'जा उवसंता संता अड सत्त य मोहवज्ज खीणम्मि । जोयम्मि अजोयम्मि य चत्तारि अघाइकम्माणि ॥८॥
८।८।८।८।८।८। ।८।८।८।८।७। ४ । ४ । उपशान्तकषाय गुणस्थान तक आठों ही कर्मोका सत्त्व रहता है। क्षीणकषायगुणस्थानमें मोहकर्मको छोड़कर शेष सात कर्मोंका सत्त्व रहता है । सयोगिकेवली और अयोगिकेवलीमें चार अघातिया कर्म विद्यमान रहते हैं ।।।
गुणस्थानोंमें मूलकों के सत्त्वकी संदृष्टि इस प्रकार हैमि० सा० मि० अ० दे० प्र० अ० अ० अ० सू० उ० क्षी० स० भ०
गुणस्थानोंमें बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियोंका निरूपण[मूलगा० २] "मिच्छे सोलस पणुवीस सासणे अविरए य दह पयडी ।
चउ छक्कमेयकमसो विरयाविरयाइ बंधवोछिण्णा ॥६॥ [मूलगा०३ ] दुअ तीस चउरपुव्वे पंचऽणियट्टिम्हिां बंधवुच्छेओ।
सोलस सुहुमसराए सायं सजोइ-जिणवरिंदे ॥१०॥ मिथ्यात्वगुणस्थानमें सोलह, सासादनमें पच्चीस, अविरतमें दश, देशविरतमें चार, प्रमत्तविरतमें छह और अप्रमत्तविरतमें एक प्रकृति बन्धसे व्युच्छिन्न होती है। अपूर्वकरणमें क्रमसे दो, तीस और चार अर्थात् छत्तीस प्रकृतियाँ, तथा अनिवृत्तिकरणमें पाँच प्रकृतियोंका बन्धसे व्युच्छेद होता है । सूक्ष्मसाम्परायमें सोलह प्रकृतियाँ बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं और सयोगि-जिनवरेन्द्र के एक सातावेदनीय बन्धसे व्युच्छिन्न होती है ॥६-१०॥
बन्ध-व्युच्छिन्न प्रकृतियोंकी संदृष्टि इस प्रकार हैमि० सा० मि० अ० दे० प्र० अ० अ० अ० सू० उ० क्षो० स० अ०
बन्धके विषयमें कुछ विशेष नियम
सव्वासिंपयडीणं मिच्छादिट्ठी दु बंधओ भणिओ । तित्थयराहारदु मुत्तूण य सेसपयडीणं ॥११॥ सम्मत्तगुणणिमित्तं तित्थयरं संजमेण आहारं ।
बझंति सेसियाओ मिच्छत्तादीहिं हेऊहिं ॥१२॥ मिथ्यादृष्टि जीव तीर्थकर और आहारकद्विक, इन तीन प्रकृतियोंको छोड़ करके शेष सभी प्रकृतियोंका बन्ध करनेवाला कहा गया है। इसका कारण यह है कि तीर्थंकर प्रकृतिका सम्यक्त्वगुगके निमित्तसे और आहारकद्विकका संयमके निमित्तसे बन्ध होता है। किन्तु शेष एक सौ सत्तरह प्रकृतियाँ मिथ्यात्व आदि कारणोंसे बन्धको प्राप्त होती हैं। ॥११-१२॥
1. सं० पञ्चसं० ३, १७ । 2.३, १६-२० । 3. ३, १८ । १. कर्मस्त. गा० २ । २. कर्मस्त० गा० ३ । +प्रतिषु 'णियट्टीहिं' इति पाठः । प्रतिषु 'सव्वेसिं' इति पाठः ।
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