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जीवसमास
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जिसके द्वारा जीव पुण्य और पापसे अपने आपको लिप्त करता है अर्थात् उनके आधीन होता है, ऐसी कषायानुरंजित योगको प्रवृत्तिको लेश्याके गुण-स्वरूपादिके जाननेवाले गणधरोंने लेश्या कहा है ॥१४२॥ लेश्याके स्वरूपका दृष्टान्त-द्वारा स्पष्टीकरण
जहX गेरुवेण कुड्डो लिप्पइ लेवेण आमपिटेण ।
तह परिणामो लिप्पइ सुहासुहा य त्ति लेवेण ॥१४३॥ जिस प्रकार आमपिष्ट ( दालकी पिट्ठी या तैलादि ) से मिश्रित गेरू मिट्टीके लेप-द्वारा भित्ती ( दीवाल) लीपी या रंगी जाती है, उसी प्रकार शुभ और अशुभ भावरूप लेपके द्वारा जो आत्माका परिणाम लिप्त किया जाता है उसे लेश्या कहते हैं ॥१४३॥ कृष्णलेश्याका लक्षण
'चंडो ण मुयइ वेरं भंडणसीलो य धम्मदयरहिओ।
दुट्टो ण य एइ वसं लक्खणमेयं तु किण्हस्स' ॥१४४॥ जो प्रचण्ड-स्वभावी हो, वैरको न छोड़े, भंडनशील या कलहस्वभावी हो, धर्म और दयासे रहित हो, दुष्ट हो, और जो किसीके भी वशमें न आवे, ये सब कृष्णलेश्यावालेके लक्षण हैं ॥१४४॥ नीललेश्याका लक्षण
मंदो बुद्धिविहीणो णिविण्णाणी य विसयलोलो य । माणी माई य तहा आलस्सो चेव भेजो। य ॥१४॥ णिदावंचणबहुलो धण-धण्णे होइ तिव्वसण्णाओ।
लक्खणमेयं भणियं समासओ णीललेसस्स ॥१४६॥ जो कार्य करनेमें मन्द-उद्यमी एवं स्वच्छन्द हो, बुद्धि-विहीन हो, कला और चातुर्यरूप विशेष ज्ञानसे रहित हो, इन्द्रियोंके विषयोंका लोलुपी हो, मानी हो, मायाचारी हो, आलसी हो, अभेद्य-स्वभावी हो, अर्थात् दूसरे लोग जिसके अभिप्रायको प्रयत्न करने पर भी न जान सकें, बहुत निद्रालु हो, पर-वंचनमें अतिदक्ष हो, और धन-धान्यके संग्रहादिमें तीव्र लालसावाला हो, ये सब संक्षेपसे नीललेश्यावालेके लक्षण कहे गये हैं ॥१४५-१४६॥ कापोतलेश्याका लक्षण
रूसइ जिंदइ अण्णे दूसणबहुलो य सोय-भयबहुलो । असुवइ परिभवइ परं पसंसइ य अप्पयं बहुसो ॥१४७।। ण य पत्तियइ परं सो अप्पाणं पिव परं पि मण्णंतो। तूसइ अइथुव्वंतो ण य जाणइ हाणि-वड्डीओ ॥१४८॥
1. सं० पञ्चसं० १, २७२-२७३ । 2. १, २७४-२७५ । 3. १, २७६-२७७ । १. ध० भा०१ पृ० ३८६, गा० २०० । गो० जी० ५०८। २.ध. भा० १ पृ. ३८८-३८६,
गा० २०१-२०२ । गो० जी० ५०-५०। ३. ध० भा० १ पृ० ३८६, गा० २०३-२०४ । गो० जी० ५११-५१२ । x द ब जिह । * ब -चैव । 'भीरु' इति मूलपाठः । द -पासं ।
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