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पञ्चसंग्रह 'मरणं पत्थेइ रणे देइ सु बहुयं पि थुव्वमाणो हु।
ण गणइ कजाकजं लक्खणमेयं तु काउस्स ॥१४६॥ __ जो दूसरोंके ऊपर रोष करता हो, दूसरोंकी निन्दा करता हो, दूषण-बहुल हो, शोक-बहुल हो, भय-बहुल हो, दूसरेसे ईर्ष्या करता हो, परका पराभव करता हो, नानाप्रकारसे अपनी प्रशंसा करता हो, परका विश्वास न करता हो, अपने समान दूसरेको भी मानता हो, स्तुति किये जाने पर अति संतुष्ट हो, अपनी हानि और वृद्धि [लाभ] को न जानता हो, रणमें मरणका इच्छुक हो, स्तुति या प्रशंसा किये जाने पर बहुत धनादिक देवे और कर्तव्य-अकर्त्तव्यको कुछ भी न गिनता हो; ये सब कापोतलेश्यावालेके लक्षण हैं ॥१४७-१४६॥ तेजोलेश्याका लक्षण
जाणइ कजाकझं सेयासेयं च सव्वसमपासी ।
दय-दाणरदो य विदू लक्खणमेयं तु तेउस्स ॥१५॥ जो अपने कर्तव्य-अकर्तव्य और सेव्य-असेव्यको जानता हो, सबमें समदर्शी हो, दया और दानमें रत हो, मृदु-स्वभावी और ज्ञानी हो, ये सब तेजोलेश्यावालेके लक्षण हैं ॥१५०॥ एमलेश्याका लक्षण
चाई भद्दो चोक्खो उज्जुयकम्मो य खमई बहुयं पि ।
साहुगुणपूयणिरओ लक्खणमेयं तु पउमस्स ॥१५॥ जो त्यागी हो, भद्र (भला) हो, चोखा ( सञ्चा) हो, उत्तम कार्य करनेवाला हो, बहुत भी अपराध या हानि होने पर क्षमा कर दे, साधुजनोंके गुणोंकी पूजनमें निरत हो, ये सब पद्मलेश्यावालेके लक्षण हैं ॥१५१॥ शुक्ललेश्याका लक्षण
'ण कुणेई पक्खवायं ण वि य णिदाणं समो य सव्वेसु ।
णत्थि य राओ दोसो हो वि हु सुक्कलेसस्स ॥१५२॥ __ जो पक्षपात न करता हो, और न निदान करता हो; सबमें समान व्यवहार करता हो, जिसे परमें राग न हो, द्वेष न हो और स्नेह भी न हो; ये सब शुक्ललेश्यावालेके लक्षण हैं ॥१५२॥ अलेश्य जीवोंका स्वरूप
किण्हाइलेसरहिया संसारविणिग्गया अणंतसुहा । सिद्धिपुरीसंपत्ता अलेसिया ते मुणेयव्वा ॥१५३॥
1.सं० पञ्चसं० १, २७८ । 2.१, २७६ । ३.१,२८० । 4.१, २८१ । 5.१, २८३ । १. ध० भा० १ पृ० ३८६, गा० २०५ । गो० जी० ५१३ । २. ध० भा० १ पृ० ३८६, गा.
२०६ । गो० जी० ५१४ । परन्तुभयनापि 'मिदू' इति पाठः। ३. ध० भा० १ पृ. ३६०, गा० २०७। गो० जी० ५१५। ४. ध० भा० १ पृ. ३६०, गा० २०८ । गो. जी० ५१६ । ५. धवला, भा० १ पृ० ३६०, गा० २०६ । गो० जी० ५५५ ।
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