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द्वितीय अधिकार प्रकृतिसमुत्कीर्तन
मंगलाचरण और प्रतिक्षा'पयडि-विबंधणमुकं पयडिसरूवं विसेसदेसयरं ।
पणविय वीरजिणिंदं पयडिसमुक्कित्तणं वुच्छं ॥१॥ कर्म-प्रकृतियोंके बन्धनसे विमुक्त, एवं प्रकृतियोंके स्वरूपका विशेषरूपसे उपदेश करनेवाले ऐसे श्रीवीर जिनेन्द्रको प्रणाम करके मैं प्रकृतिसमुत्कीर्तन नामक अधिकारको कहूँगा ।।१।।
पयडीओ दुविहाओ मूलपयडीओ उत्तरपयडीओ । तं जहा__ प्रकृतियाँ दो प्रकारकी होती हैं-मूलप्रकृतियाँ और उत्तरप्रकृतियाँ । उनका विशेष विवरण इस प्रकार है
णाणस्स दंसणस्स य आवरणं वेयणीय मोहणियं ।
आउग णामागोदं तहंतरायं च मूलाओ ॥२॥ ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय ये कर्मोंकी आठ मूलप्रकृतियाँ हैं ॥२॥ कौके स्वभावका दृष्टान्त-द्वारा निरूपण--
पड पडिहारसिमजा हडि चित्त कुलाल भंडयारीणं ।
जह एदेसि भावा तह वि य कम्मा मुणेयव्वा ॥३॥ पट ( देव-मुखका आच्छादक वत्न) प्रतीहार (राजद्वार पर बैठा हुआ द्वारपाल ) असि (मधु-लिप्त तलवार ) मद्य ( मदिरा) हडि ( पैर फंसानेका खोड़ा) चित्रकार (चितेरा) कुम्भकार (वर्तन बनानेवाला कुम्भार ) और भंडारी ( कोषाध्यक्ष ) इन आठोंके जैसे अपनेअपने कार्य करनेके भाव होते हैं, उस ही प्रकार क्रमशः कर्मों के भी स्वभाव समझना चाहिए ॥३॥
1. सं० पञ्चसं०२, १। 2. २,२। १. कर्मस्तक है। गो० क० , परं तत्र चतुर्थ-चरणे-'तरायमिदि अटु पयडीओ' इति पाठः ।
२. गो० क० २१ । कर्मवि० ।
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