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जीवसमास कृष्णलेश्या भौं रेके समान वर्णवाली है, नीललेश्या नीलको गोली, नीलमणि या मयूरकंठके समान वर्णवाली है । कापोतलेश्या कपोत ( कबूतर) के समान वर्णवाली है। तेजोलेश्या तपे हुए सोनेके समान वर्णवाली है। पद्मलेश्या पद्म (गुलाबी रंगके कमल) के सदृश वर्णवाली है और शुक्ललेश्या कांसके फूलके समान श्वेतवर्णवाली है। इन छहों लेश्याओंके वर्णान्तर अर्थात् तारतम्यकी अपेक्षा मध्यवर्ती वर्गों के भेद इन्द्रियों द्वारा ग्रहण करनेकी दृष्टिसे संख्यात हैं, स्कन्धः गत जातियों की अपेक्षा असंख्यात हैं और परमाणु-गत भेदकी अपेक्षा अनन्त हैं ॥१८३-१८४॥ नरकोंमें लेश्याओंका निरूपण
'काऊ काऊ तह काउ-णील णीला य णील-किण्हा य ।
किण्हा य परमकिण्हा लेसा रयणादि-पुढवीसु॥१८॥ रत्नप्रभादि पृथिवियोंमें क्रमशः कापोत, कापोत, कापोत और नील, नील, नील और कृष्ण, कृष्ण, तथा परमकृष्ण लेश्या होती है ।।१८।।
विशेषार्थ-प्रथम पृथिवीके नारकियों के कापोतलेश्याका जघन्य अंश होता है। द्वितीय पृथिवीके नारकियोंके कापोतलेश्याका मध्यम अंश होता है। तृतीय पृथिवीके नारकियोंके कापोतलेश्याका उत्कृष्ट अंश और नीललेश्याका जघन्य अंश होता है। चतुर्थ पृथिवीके नारकियोंके नीललेश्याका मध्यम अंश होता है। पंचम पृथिवीके नारकियोंके नीललेश्याका उत्कृष्ट अंश और कृष्णलेश्याका जघन्य अंश होता है । षष्ठ पृथ्वीके नारकियोंके कृष्णलेश्याका मध्यम अंश होता है । सप्तम पृथ्वीके नारकियोंके परम कृष्णलेश्या अर्थात् कृष्णलेश्याका उत्कृष्ट अंश होता है । तिर्यंच और मनुष्योंमें लेश्याओंका निरूपण
एइंदिय-वियलिंदिय-असण्णि-पंचिंदियाण पढमतियं । संखदीदाऊणं सेसा सेसाण छप्पि लेसाओ॥१८६॥
___ ३।३।६। एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रियतियचोंमें प्रथम तीन अशुभ लेश्याएँ होती हैं । संख्यातीत आयुवालों के अर्थात् असंख्यात वर्षकी आयुवाले भोगभूमियाँ मनुष्य और तियंचोंके शेष तीन शुभ लेश्याएँ होती हैं। शेष अर्थात् संख्यात वर्षकी आयु वाले कर्मभूमियाँ मनुष्य और तियचोंके छहों लेश्याएँ होती हैं ।।१८६॥ ( इनकी अंकसंदृष्टि गाथाके नीचे दी है।) गुणस्थानोंमें लेश्याओंका निरूपण
पढमाइचउ छलेसा सुहाउ जाणे हु तिस्सु तिण्णेव । उवरिमगुणेसु सुक्का णिल्लेसो अंतिमो भणिओ ॥१८७॥
६६।६।६।३।३।३।१।१।११।१।११। प्रथम गुणस्थानसे लेकर चौथे गुणस्थान तल छहों लेश्याएँ होती हैं। पाँचवेंसे लेकर सातवें तक तीन गुणस्थानोंमें तीन शुभ लेश्याएँ ही होती हैं । उपरिम गुणोंमें अर्थात् आठवेंसे लेकर तेरहवें गुणस्थान तक एक शुक्ललेश्या ही होती है। अन्तिम अयोगकेवली गुणस्थान निर्लेश्य अर्थात् लेश्या-रहित कहा गया है ।।१८७॥ (इनकी अंकसंदृष्टि गाथाके नीचे दी है।)
1. सं० पञ्चसं० १,२६८। 2.१, २६७ । 3. १, २६५ । १. जीवस० ७२, मूला० ११३४, गो० जी० ५२८ ।
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