________________
जीवसमास
२१
यथाख्यातसंयमका स्वरूप
उवसंते खीणे वा असुहे कम्मम्हि मोहणीयम्हि ।
छदुमत्थो व जिणो वा जहखाओ संजओ साहू ॥१३३।। अशुभ (पाप) रूप मोहनीय कर्मके उपशान्त अथवा क्षीण हो जानेपर जो वीतराग संयम होता है, उसे यथाख्यातसंयम कहते हैं। उसके धारक ग्यारहवें-बारहवें गुणस्थानवर्ती छद्मस्थ साधु और तेरहवें-चौदहवें गुणस्थानवर्ती केवली जिन यथाख्यातसंयत कहलाते हैं ॥१३३॥ संयमासंयमका सामान्य स्वरूप
जो ण विरदो दु भावो थावरवह-इंदियत्थदोसाओ।
तसवहविरओ सोच्चिय संजमासंजमो दिवो ॥१३४॥ भावोंसे स्थावर-वध और पाँचों इन्द्रियोंके विषय-सम्बन्धी दोषोंसे विरत नहीं होने, किन्तु त्रस-वधसे विरत होनेको संयमासंयम कहते हैं और उनका धारक जीव नियमसे संयमासंयमी कहा गया है ॥१३४॥ संयमासंयमका विशेष स्वरूप
पंच-तिय-चउविहेहिं अणु-गुण-सिक्खावएहिं संजुत्ता ।
वुचंति देसविरया सम्माइट्ठी झडियकम्मा ॥१३॥ पाँच अणुव्रत, तीन गुणवंत और चार शिक्षाबतासे संयुक्त होना विशिष्ट संयमासंयम है। उसके धारक और असंख्यातगुणश्रेणीरूप निर्जराके द्वारा कर्मोके झड़ानेवाले ऐसे सम्यग्दृष्टि जीव देशविरत या संयतासंयत कहलाते हैं ॥१३॥ देशविरतके भेद
दंसण-वय-सामाइय पोसह सच्चित्त राइभत्ते य ।
वंभारंभपरिग्गह अणुमण उद्दिट्ट देसविरदेदे ॥१३६॥ दार्शनिक, व्रतिक, सामयिकी, प्रोषधोपवासी, सचित्तविरत, रात्रिभुक्तिविरत, ब्रह्मचारी, आरम्भविरत, परिग्रहविरत, अनुमतिविरत और उद्दिष्टविरत ये देशविरतके ग्यारह भेद होते हैं ।।१३।। असंयमका स्वरूप
जीवा चउदसभेया इंदियविसया य अट्ठवीसं तु ।
जे तेसु णेय विरया असंजया ते मुणेयव्वाँ ॥१३७॥ जीव चौदह भेद रूप हैं और इन्द्रियोंके विषय अट्ठाईस हैं। जीवघातसे और इन्द्रियविषयोंसे विरत नहीं होनेको असंयम कहते हैं। जो इनसे विरत नहीं हैं, उन्हें असंयत जानना चाहिए ॥१३७॥
इस प्रकार संयममार्गणाका वर्णन समाप्त हुआ 1. सं० पञ्चसं० १, २४३ । १. १, २४६ ।।.१,२४७-२४८ । १. ध० भा० १ पृ. ३७३, गा० १६१ । गो० जी० ४७४ । परन्तूभयत्रापि 'सो दु' तथा 'सो हु'
इति पाठः। २. ध० भा० १ पृ. ३७३, गा० १६२ । गो० जी० ४७५ । ३. ध० भा० १ पृ० ३७३, गा० १६३ । गो० जी० ४७६ । ४. ध० भा० १ पृ० ३७३, गा० १६४ । गो०
जी० ४७७ । सद -खाउ ।:::ब सुध्विय, द सुच्चिय ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org