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जीवसमास
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अनन्तानुबन्धीलोभ किरमिजी रंगके समान है, अप्रत्याख्यानावरणलोभ चक्र अर्थात् गाड़ीके पहियेके मलके समान है, प्रत्याख्यानावरणलोभ कर्दम अर्थात् कीचड़के समान है और संज्वलन लोभको हल्दीके रंगके समान जानना चाहिए। इन चारों ही जातिके लोभके वशसे जीव क्रमशः नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवत्वको प्राप्त होते हैं ॥११४॥ चारों जातिके कषायोंके पृथक्-पृथक् कार्योंका वर्णन
'पढमो दसणघाई विदिओ तह घाइ देसविरइ ति।
तइओ संजमघाई चउथो जहखायघाईया ॥११॥ प्रथम अनन्तानुबन्धी कषाय सम्यग्दर्शनका धात करती है, द्वितीय अप्रत्याख्यानावरण कपाय देशविरतिकी घातक है। तृतीय प्रत्याख्यानावरण कषाय सकलसंयमकी घातक है और चतुर्थ संज्वलन कषाय यथाख्यातचारित्रकी घातक है ।।११।। अकषाय जीवोंका वर्णन
अप्पपरोभयवाहणबंधासंजमणिमित्तकोहाई ।
जेसिं णत्थि कसाया अमला अकसाइणो जीवा ॥११६॥ जिनके अपने आपको, परको और उभयको बाधा देने, बन्ध करने और असंयमके आचरणमें निमित्तभूत क्रोधादि कषाय नहीं हैं, तथा जो बाह्य और आभ्यन्तर मलसे रहित हैं, ऐसे जीवोंको अकषाय जानना चाहिए ॥११६।।
इस प्रकार कपायमार्गणाका वर्णन समाप्त हुआ। ज्ञानमार्गणा, ज्ञानका स्वरूप
जाणइं तिकालसहिए* दव्व-गुण-पज्जए बहुब्भेए। .
पच्चक्खं च परोक्खं अणेण णाण ति। णं विति ॥११७॥ जिसके द्वारा जीव त्रिकाल-विषयक सर्व द्रव्य, उनके समस्त गुण और उनकी बहत भेदवाली पर्यायोंको प्रत्यक्ष और परोक्ष रूपसे जानता है, उसे निश्चयसे ज्ञानी जन ज्ञान कहते हैं ॥११७॥ मत्यज्ञानका स्वरूप
"विस-जंत-कूड-पंजर-बंधादिसु अणुवदेसकरणेण ।
जा खलु पवत्तइ मई मइअण्णाण त्ति णं विति ॥११८।। परोपदेशके विना जो विष, यन्त्र, कूट, पंजर तथा वन्ध आदिके विषयमें बुद्धि प्रवृत्त होती है, उसे ज्ञानी जन मत्यज्ञान कहते हैं ।।११।।
1. सं० पञ्चसं १, २०५। . १, २१२ । 3. १, २१३ । 4. १, २३१ पूर्वार्ध । १. ध० भा० १ पृ० ३५४, गा० १७८ । गो० जी० २८८ । २. ध० भा०, पृ० १४४,
गा० ११ । गो. जी. २१८ । ३. ध० भा० ११० ३५८, गा० १७४ । गो० जी० ३०२। १. 'अणेण जीवो' इति मूलप्रती पाठः। दत्तणं, घ तण । प्रतिषु 'बड़ादिसु' इति
पाठः ।
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