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जीवसमास
वैक्रियिककाययोगका स्वरूप
'विविहगुणइड्डिजुत्तं वेउव्वियमहव विकिरियं चेव । _ तिस्से भवं च णेयं वेउव्वियकायजोगो सो ॥६॥ विविध गुण और ऋद्धियोंसे युक्त, अथवा विशिष्ट क्रियावाले शरीरको वैक्रियिक कहते हैं। उसमें उत्पन्न होनेवाला जो योग है, उसे वैक्रियिककाययोग जानना चाहिए ॥६५॥ वैक्रियिकमिश्रकाययोगका स्वरूप
अंतोमुहुत्तमझ वियाण मिस्सं च अपरिपुण्णो त्ति ।
जो तेण संपओगो वेउब्वियमिस्सकायजोगो सो ॥१६॥ वैक्रियिकशरीरको उत्पत्ति प्रारम्भ होनेके प्रथम समयसे लगाकर शरीरपर्याप्ति पूर्ण होने तक अन्तर्मुहूर्तके मध्यवर्ती अपरिपूर्ण शरीरको वैक्रियिकमिश्रकाय कहते हैं। उसके द्वारा होनेवाला जो संप्रयोग है, वह वैक्रियिकमिश्रकाययोग कहलाता है। अर्थात् देव-नारकियोंके उत्पन्न होनेके प्रथम समयसे लेकर शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने तक कार्मणशरीरकी सहायतासे उत्पन्न होनेवाले वैक्रियिककाययोगको वैक्रियिकमिश्रकाययोग कहते हैं ।।६६॥ आहारककाययोगका स्वरूप
"आहरइ अणेण मुणी सुहुमे अट्ठ सयरस संदेहे ।
गत्ता केवलिपासं तम्हा आहारकायजोगो सो ॥१७॥ स्वयं सूक्ष्म अर्थमें सन्देह उत्पन्न होनेपर मुनि जिसके द्वारा केवलि-भगवान्के पास जाकर अपने सन्देहको दूर करता है, उसे आहारक काय कहते हैं। उसके द्वारा उत्पन्न होनेवाले योगको आहारककाययोग कहते हैं ॥१७॥ आहारकमिश्रकाययोगका स्वरूप
"अंतोमुत्तमझ वियाण मिस्सं च अपरिपुण्णो त्ति ।
जो तेण संपओगो आहारयमिस्सकायजोगो सो ॥१८॥ आहारकशरीरकी उत्पत्ति प्रारम्भ होनेके प्रथम समयसे लगाकर शरीरपर्याप्ति पूर्ण होने तक अन्तर्मुहूर्तके मध्यवर्ती अपरिपूर्ण शरीरको आहारकमिश्रकाय कहते हैं। उसके द्वारा जो योग उत्पन्न होता है वह आहारकमिश्रकाययोग कहलाता है ॥६॥ कार्मणकाययोगका स्वरूप
'कम्मेव य कम्मइयं कम्मभवं तेण जो दु संजोगो ।
कम्मइयकायजोगो एय-विय-तियगेसु समएसु ॥१६॥ कर्मों के समूहको, अथवा कार्मणशरीर नामकर्मके उदयसे उत्पन्न होनेवाले कायको कार्मणकाय कहते हैं और उसके द्वारा होनेवाले योगको कार्मणकाययोग कहते हैं। यह योग विग्रहगतिमें अथवा केवलिसमुद्घातमें एक, दो अथवा तीन समय तक होता है ॥६६॥
1-2. सं० पञ्चसं० १,१७३-१७४ | 3-1. १, १७५-१७७ । 5.१, १७८ । १. ध० भा० १ पृ. २६१ गा० १६२ । गो० जी० १३१ । २. ध० भा. १ पृ. २६२ गा०
१६३ । गोजी० २३३ । परं तत्र प्रथमचरणे पाठभेदः । ३. ध० भा० १ पृ. २६४ गा. १६४ । गो० जी० २३८ । ४. ध० भा० १ पृ. २६४ गा० १६५ । गो०जी० २३६, परं तत्र प्रथमचरणे पाठभेदः । ५. ध० भा० १ पृ. २१५ गा० १६६ । गो० जी० २४० ।
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