Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobetirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
पद्म पुराण ॥१७॥
चञ्चल जान बैरागी भए, और कियाहै लोकांतिक देवों ने स्तवन जिनका मुनिव्रतको धारण कर सम्य ग्दर्शन ज्ञान चारित्र का अाराधन कर घातिया कर्मों का नाशकर केवल ज्ञानको प्राप्त भये वह केवल ज्ञान समस्तलोकालोकका प्रकाशकहै, ऐसे केवल ज्ञानकेधारक भगवाननेजगत्के भव्यजीवोंके उपकार के निमित्त धर्म तीर्थ प्रगट किया, वह श्रीभगवान मल रहित पसेव रहित है जिनका रुधिर क्षीर[दध]समानहै और सुगंधित शरीरशुभलक्षण अतुलबल मिष्ट वचन महा सुन्दर स्वरूप सम चतुरस्र संस्थान वेज्र वृषभ नाराच संहनन के धारक हैं जिन के विहार में चारों ही दिशात्रो में दुर्भित नहीं रहता, सकल ईति भीति का अभाव रहेह, और सर्व विद्याके परमेश्वर जिनकाशरीर निरमल स्फटिक समान है और पाखों की पलक नहीं लगती हैं और नख केश नहीं बढ़ते हैं, समस्त जीवों में मैत्री भाव रहता है और शीतल मन्द सुगन्ध पवन पीछे लगी आवे है, छह ऋतु के फल फूल फलें हैं और धरती दर्पण समान निर्मल होजाती है
और पवनकुमार देव एक योजन पर्यंत भूमि तृण पाषाण कण्टकादि रहित करे हैं और मेघकुमारदेव गन्धोदिक की सुबृष्टि महा उत्साह से करें हैं, और प्रभु के विहार में देव चरण कमल के तले स्वर्णमयी कमल रचे हैं चरणों को भूमिका स्पर्श नहीं होता है, अाकाश में ही गमन करें हैं, धरती पर छह ऋतु के सर्व धान्य फलें हैं, शरद के सरोवर के समान अाकाश निर्मल होय है और दश दिशा धूभ्रादि रहित निर्मल होय है, सूर्य की कांति को हरणे वाला सहस्र धारों से युक्त धर्मचक्र भगवान के आगे श्रागे चले है, इस भान्ति आर्यखण्ड में विहार कर श्रीमहाबीरस्वामी विपुलाचल पर्वत ऊपर प्राय विराजे हैं, मुख पर्वत पर नाना महर के जलके निझरने झरे हैं. उन का शब्द न हमार हारा है. जहां बेल और।
For Private and Personal Use Only