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विषय-सूची
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सिबज्योतिके माराधनसे योगी स्वयं भी सिद्ध हो एक मात्र परमात्माकी शरणमें जानेसे सब FA जाता है
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सिद होता है सिदज्योतिको विपिघल्पता
मन, वचम, काप व त, कारित, अनुमोदमा भनेकान्त सिद्धान्तका भवगाहन कामेवा ही
रूप नौ स्थानों हारा किया गया पाप सिद्धाधमाके रहस्यको मान सकता है १४
मिय्या दो
सर्व बिनके जामनेपर भी दोषोंकी पालोचना तयार भतवशकी रष्टि किस प्रकारसे हुर
भावमशुदिके लिये की जाती है और मशुद्ध पदको करती है
भागमानुसार भसंख्यात दोषोंका प्रायश्रित सांगोपांग भुतके मभ्यासका फळ सिदत्वकी
सम्भव नहीं प्राप्ति है
जो निस्पृहतापूर्वक भगवानको देखता है। या सिदोका वर्णम मेरे लिबे मोक्षप्रासादपर
भगवाम्के निकट पहुंच जाता है बढ़ने के लिये नसैनी जैसा है
मनका नियन्त्रण अतिशय कठिन है मुकास्मरूप सेनका खरूप
मन भगवान्को छोड़कर बाम पदार्थोंकी भोर अप-निमाविक माशिव विवरणसे रहित सिड
क्यों पाता है
सब कामें मोह ही अतिशय बारूपान् है सिव नानकार धानालाको सहम
जगत्को झणभंगुर देखकर मनको पामात्माची समान तुच्छ समझते हैं
मोर लगाना चाहिये । सिझोंका मरण करनेवाले भी वंदनीय हैं २३ | मधुम, शुभ और शुरपयोगका कार्य इहिमानों में अग्रणी कौन है, इसके लिये बापका | मैं जिस ज्योतिःस्वरूप है वह कैसी है उदाहरण
जीव और परमात्माके बीच मेद करनेवाला कर्म है २० सिद्धारमशानसे शून्य शाबान्तरोंका शान स्पर्ष है २५
शरीर और उससे सम्बद्ध इन्द्रियां समा रोग
मादि पुद्गलस्वरूपो भास्मासे जमत हान-वर्षानसे सम्पर सिमोसे शिवसुसकी।
सर्वथा भित्र है
भर्मादिक पांच इयों में एक पुद्गल ही राग-रेषके मारमाको गृहकी उपमा
मा कम-नोकर्मरूप होकर जीवका हित सिरोकी ही गति मादिभीर है
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किया करता है सियोकी मह पति केवल मकिके वश की गई है २९
सबा सुख माय निस्पोंको शेलकर नारमोन्मुख होनेपर प्राप्त होता है
१४-१८ ९. आलोचना १-३३, पृ. १२८ वासनमें वैतबुद्धि ही संसार मौर भईत ही
मोक्ष है मनसे परमात्मस्वरूपका चिन्तन करनेपर
| इस कलिकासमें चारित्रका परिपाकन न हो नभीरकी प्राक्षिमें बाधा नहीं पा सकती ।
सकनेसे नापक्री मलि ही मेरा संसारखे सत्पुन जिनपरोकी भाराधमा क्यों करते हैं २
३० जिनसेवासे संसार-शत्रुका भय नहीं रहता है मुक्किमप मोक्षमार्गके पूर्ण करने की प्रार्थना टीमों कोकों में सारभूत एक परमात्मा ही है । वीरमादी गुरुके सदुपदेशसे मुझे तीन कोकका ममन्तचतुष्टमस्वरूप परमात्माके जान लेनेपर । राज्य मी ममीर नहीं है
फिर बानने के लिये शेष नहीं रहता ५ | मालोचनाके पडनेका फल