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२५. मानाष्टकम् मानस्योभयथेस्यभूतिफलता ये कुर्वते तत्पुनस्
तेषां भूजलकीटकोटिहननात्पापाय रागाय च ॥२॥ 925) चित्ते प्राग्भवकोटिसंचितरजासंबन्धिताविर्भवन
मिथ्यात्वादिमलव्यपायजनक मानं विवेकः सताम् । अन्यद्वारिकृतं तु अन्तुनिकरव्यापायनास्पापक
मो धो शिजता स साल मारे शहार शुधौ ।।। 926) सम्यग्बोधविशुद्धधारिणि लसत्सदर्शनोमिमजे
निस्यानन्दविशेषशैत्यसुभगे निःशेषपापहि । सत्तीर्थ परमात्मनामनि सदा खानं कुरुभ्यं घुधार शुद्धयर्थे किमु घायत त्रिपथगामालप्रयासाकुलाः ॥ ४॥
कदाचित् । मो अभ्येति न प्राप्नोति । इति हेतोः । स्नानस्य उभयपा द्विप्रकारम् । विफलता अभूत् । पुनः ये मुनमः तत् मान कुर्वते तेषां यतीना भूजलकीटकोटिईननात् तत्स्नानं पापाय रागाय च ॥२॥ सतो सत्पुरुषाणाम् । विवेकः मानम् । किंलक्षणः बिबेकविते मनति । प्राग्भव-पूर्वपर्याय-कोटिसंचितरजःसंबन्धिताविर्भवन्मिध्यास्वादिमलव्यपायजनक नाशकारक: विवेकः । पुनः। खलु इति निश्चितम् । खभाषाशुची स्वभावात् अपवित्रे काये । अन्यद्वारिकृत मानं जन्तुनिकरण्यापादनात् जन्तुसमूहविनाशनाद पापकृत् । ततः पापात् नो धर्मः । खलु निश्चितम् । खभावाशुचौ काये पवित्रता न ॥३॥ भो बुधाः त्रिपया गङ्गाम् । शुकार्य किमु भारत भालप्रयासालाः । मो मग्याः। परमात्मनामनि सनी मान कुरुथ्वम् । किलक्षणे सनी। सम्बन्धोष एवं सुरजले यत्र तत्तस्मिन् सम्यम्बोधविशुद्धवारिणि । पुनः किंलक्षणे परमात्मनामनि वीर्षे । लसस्थानोमिबजे । पुनः नित्यानन्द.
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कि निश्चय दृष्टिसे विचार करनेपर स्नानके द्वारा शरीर तो शुद्ध नहीं होता है, प्रत्युत जीवहिंसा एवं आरम्म आदि ही उससे होता है। यही कारण है जो मुनियों के मूलगुणों में ही उसका निषेध किया गया है। परन्तु व्यवहारकी अपेक्षा वह अनावश्यक नहीं है, बल्कि गृहस्थके लिये वह आवश्यक भी है। कारण कि उसके विना शरीर तो मलिन रहता ही है, साथमें मन भी मलिन रहता है। विना मानके जिनपूजनादि शुभ कार्यों में प्रसन्नता भी नहीं रहती । हां, यह अवश्य है कि बाय शुद्धिके साथ ही आभ्यन्तर शुद्धिका भी ध्यान अवश्य रखना चाहिये । यदि अन्तरंगमें मद-मात्सर्यादि भाव हैं तो केवल यह बाह्य शुद्धि कार्यकारी नहीं होगी || २ | चित्तमें पूर्वके करोड़ों भवोंमें संचित हुए पाप कर्मरूप धूलिके सम्बन्धसे प्रगट होनेवाले मिथ्यात्व आदिरूप मलको नष्ट करनेवाली जो विवेकबुद्धि उत्पन्न होती है वही वास्तव में साधु जनोंका मान है । इससे भिन्न जो जलकृत स्नान है वह प्राणिसमूहको पीडाजनक होनेसे पापको करनेवाला है। उससे न तो धर्म ही सम्भव है और न स्वभावसे अपवित्र शरीरकी पवित्रता भी सम्भव है || ३ ॥ हे विद्वानो! जो परमात्मा नामक समीचीन तीर्थ सम्यग्ज्ञानरूप निर्मल जलसे परिपूर्ण है, शोभायमान सम्यग्दर्शनरूप लहरों के समूहसे व्याप्त है, अविनश्वर आनन्दविशेषरूप ( अनन्तसुख) शैत्यसे मनोहर है, तथा समस्त पापोंको नष्ट करनेवाला है। उसमें आप लोग निरन्तर स्नान करें । व्यर्थक परिश्रमसे व्याकुल होकर शुद्धिके लिये गंगाकी ओर क्यों दौड़ते हैं । अर्थात् गंगा आदिमें स्नान करनेसे कुछ अन्तरंग शुद्धि नहीं हो सकती है, वह तो परमात्माके स्मरण एवं उसके स्वरूपके चिन्तन आदिसे ही हो सकती है, अत एवं उसीमें अवगाहन
१पा कोटिकीट। २क शुद्धजलम् ।
मनन ३४