Book Title: Padmanandi Panchvinshati
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 310
________________ २६६ [927:२५५ पचनन्वि-पशिपिंशतिः 927 ) नो इष्टः शुचितस्वनिमयनदो नसामरक्षाकर पापैः कापि न पश्यते व समतानामातिशुद्धा मदी। सेनैतानि विहाय पापहरणे सस्यामि तीर्थानि ते तीर्यामाससुरागादिषु अझ मान्ति तुभ्यन्ति च ॥५॥ 928) नो सीयें न जले तस्ति भुवने नान्यस्किमप्यस्ति तत् निःशेषाशुधि येन मानुश्वयुः लाक्षाविद शुद्ध्यति । भाभियाधिजरामाप्तिपनिमिया तथैतत्पुनः' शश्वत्तापकरं यथास्य वपुषो नामाप्पसह्यं सताम् ॥ ६॥ 929 ) सबैस्तीर्थ अलैरपि प्रतिदिन सात न शुद्ध भवेत् करादिविलेपनैरपि सदा लिप्तं च दुग्धभुत् । पोनापि च रक्षितं शयपथमस्थायि दुम्सप्रद यत्तस्मादपुषः किमयाशुभ कर च किं प्राणिमाम् ॥७॥ विशेषशैलसुभगे । पुनः निःशेषपापहार पापस्फेटके ॥पापैः पापयुक्तः पुरुषैः । वापि कस्मिन् काले । शुचितत्वनिक्षयनदः न राष्टः । पुनः तैः पापैः सानरजाकरः न : 1 र पुनः । समता नाम नदी न दृश्यते। तेन कारणेन। एतानि सत्यानि सी नि पापहरणे समर्थानि । बिहाय परित्यज्य । ते जडाः मूर्खः । वीर्धाभाससुरापगादिषु गङ्गादितीर्थेषु मजन्ति तुष्यन्ति चै ॥ ५ ॥ भुवने संसारे । येन वस्तुना। इदं मानुषवपुः साक्षात् शुभ्यति सत्तीर्थ नो । तखल न अस्ति। तदन्यत् किमपि न भस्ति । निःशेषाशुचि सर्वम् अशुचि । पुनः धिम्याधिजरामृतिप्रभूतिभिः । तत् शरीरम् । स्याप्तम् शश्वत् तापकरम् । यथा अस्य वपुषः नाम्। भसामा यवपुः सः तीर्थजलैः अपि प्रतिदिन सात शुद्ध न भवेत् । यद्दपः कर्मरादिक्लेिपनैः सदा लिशम् अपि दुर्गन्धमृत् । च पुनः । योनापि रक्षितम् । क्षयपयप्रस्थायि क्षयपथगमनशीलम् । पुनः दुःखप्रदम् । करना चाहिये ॥ ४ ॥ पापी जीवोंने न तो तत्वके निश्चयरूप पवित्र नद (नदीविशेष ) को देखा है और न ज्ञानरूप समुद्रको ही देखा है । वे समता नामक अतिशय पवित्र नदीको भी कहींपर नहीं देखते हैं। इसलिये वे मूर्ख पापको नष्ट करनेके विषयमें यथार्थभूत इन समीचीन तीथोंको छोड़कर तीर्थके समान प्रतिभासित होनेवाले गंगा आदि तीर्थाभासोंमें स्नान करके सन्तुष्ट होते हैं ॥ ५ ।। संसारमें वह कोई तीर्थ नहीं है, वह कोई जल नहीं है, तथा अन्य भी वह कोई वस्तु नहीं है। जिसके द्वारा पूर्णरूपसे अपवित्र यह मनुष्यका शरीर प्रत्यक्षमें शुद्ध हो सके। आधि ( मानसिक कष्ट), व्याधि ( शारीरिक कष्ट ), बुढ़ापा और मरण आदिसे व्याप्त यह शरीर निरन्तर इतना सन्तापकारक है कि सज्जनोंको उसका नाम लेना भी असा प्रतीत होता है ।। ६ ।। यदि इस शरीरको प्रतिदिन समस्त तीर्थोके जलसे भी मान कराया जाय तो भी वह शुद्ध नहीं हो सकता है, यदि इसका कपूर व कुंकुम आदि उबटनोंके द्वारा निरन्तर लेपन भी किया जाय तो भी वह दुर्गन्धको धारण करता है, तथा यदि इसकी प्रयत्नपूर्वक रक्षा भी की जाय तो भी वह क्षयके मार्गमें ही प्रस्थान करनेवाला अर्थात् नष्ट होनेवाला है। इस प्रकार जो शरीर सब प्रकारसे दुख देनेवाला है उससे अधिक प्राणियोंको और दूसरा कौन-सा अशुभ व कौन-सा कृष्ट हो सकता है ! अर्थात् प्राणियोंको सबसे अधिक अशुभ और कष्ट देनेवाला यह शरीर ही १ प्रतिपाठोऽयम् । क न्याप्तं तदा तत्पुनः भ्याप्त येतवनः। र श 'च' नास्ति। ३ अस्त्रि भन्यस्किमपि ।

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