Book Title: Padmanandi Panchvinshati
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 308
________________ [२५. स्नानाष्टकम् ] 928) सम्माख्यादि यदीयसनिधिवशादस्पृश्यतामाश्रयेद विण्मूनादिभृतं रसादिघटितं बीमत्सु यत्पूति च । आरमा मलिन करोत्यपि शुचि लांशुबीनामिदं संकेतकगृहं नृणां यपुरषां मामास्कथं शुमति ॥१॥ 924) आत्माप्तीव शुचिः स्यमावत इति मान वृथालिन् परे कायधाशुचिरेष तेन शुचितामभ्येति नो जाचित् । मृणाम् इदं वपुः शरीरम् । अपां जलानाम् । नानात्वर्थ शुरूपति । यहीयसनिधिवशात् यस्य शरीरस्य संनिधियशात निकटयशात । सन्माल्यादि पुष्पमालादि अस्पृश्यताम् मात्रयेत् । च पुनः । मद शरी बिद-विधामूत्राविमृतम् । पुनः रसादिघटितम् । पुनः बीभत्सु भयानकम् । पुनः पूति दुर्गन्धम् । शुधिम् मात्मानं मलिन करोति इदं शरीरम्। पुनः किंलक्षणम् । सर्वाशुचीनी संकेतकगृहम् । तत शरीरं जलात्न सुम्यति ।।॥ भारमा सभावतःमतीव शुचिः पवित्रः । इति तो अस्मिन् परे हे मात्मनि । स्नान कथा अफलम् । व पुनः। कायः सदैव अशुभिः एम। तेने जलेन । शुचिता पवित्रताम् । जाचित् जिस शरीरकी समीपताके कारण उत्तम माला आदि छनेके भी योग्य नहीं रहती है, जो मल एवं मूत्र आदिसे भरा हुआ है, रस एवं रुधिर आदि सात धातुओंसे रचा गया है, भयानक है, दुर्गन्धसे युक्त है, तथा जो निर्मल आत्माको भी मलिन करता है। ऐसा समस्त अपवित्रताओंके एक संकेतगृहके समान यह मनुष्योंका शरीर जलके खानसे कैसे शुद्ध हो सकता है। अर्थात् नहीं हो सकता है ॥ १ ॥ आत्मा तो स्वभावसे अत्यन्त पवित्र है, इसलिये उस उत्कृष्ट मात्माके विषयमें सान व्यर्थ ही है; तथा शरीर स्वमावसे अपवित्र ही है, इसलिये वह भी कभी उस मानके द्वारा पवित्र नहीं हो सकता है । इस प्रकार खानकी व्यर्थता दोनों ही प्रकारसे सिद्ध होती है। फिर भी जो लोग उस मानको करते हैं वह उनके लिये करोड़ों पृथिवीकायिक, जलकायिक एवं अन्य कीड़ोंकी हिंसाका कारण होनेसे पाप और रागका ही कारण होता है। विशेषार्थ- यहां ज्ञानकी आवश्यकताका विचार करते हुए यह प्रश्न उपस्थित होता है कि उससे क्या आत्मा पवित्र होती है या शरीर ! इसके उत्तरमें विचार करनेपर यह निश्रित प्रतीत होता है कि उक्त मानके द्वारा आत्मा तो पवित्र होती नहीं है, क्योंकि, वह स्वयं ही पवित्र है । फिर उससे शरीरकी शुद्धि होती हो, सो यह भी नहीं कहा जा सकता है; क्योंकि वह स्वभावसे ही अपवित्र है । जिस प्रकार कोयलेको जलसे रगड़ रगड़कर धोनेपर भी वह कभी कालेपनको नहीं छोड़ सकता है, अथवा मलसे भरा हुआ घट कभी बाहिर मांजनेसे शुद्ध नहीं हो सकता है; उसी प्रकार मल-मूत्रादिसे परिपूर्ण यह सप्तधातुमय शरीर भी कभी मानके द्वारा शुद्ध नहीं हो सकता है। इस तरह दोनों ही प्रकारसे खानकी व्यर्थता सिद्ध होती है। फिर भी जो लोग खान करते हैं वे चूंकि जलका यिक, पृथिवीकायिक तथा अन्य प्रस जीवोंका भी उसके द्वारा घात करते हैं; अत एव वे केवल हिंसाजनित पापके भागी होते हैं। इसके अतिरिक्त वे शरीरकी बाप स्वच्छतामें राग भी रखते हैं, यह भी पापका ही कारण है । अभिप्राय यह है १मः विण। २ क कायरा अधिः तेन ।

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