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२३२ पानन्दि-पविशतिः
[4811६.२५ 421) पर्वस्वय यथाशक्ति भुक्तियागादिकं तपः । पत्रपूत पिवेत्तोयं रात्रिभोजनपर्जनम् ॥ २५ ॥ 422) ते वेशं नरं तवं सत्कर्माणि च नाश्रयेत् । मलिनं दर्शनं येन पेन पवतखण्डनम् ॥ २६ ॥ 423) भोगोएमोगसंख्यानं विधेयं विधिवत्सदा । प्रतशूम्या न कर्तव्या काचित् कालकला बुधैः॥२७॥ 424) रखत्रयाश्रयः कार्यस्तथा भव्यरतन्द्रितैः । जन्माम्सरे ऽपि तद्धा यथा संवर्धते तराम् ॥२८॥ धानकै अब पर्वसु स्थाशचि मुक्त्यिागादिक तपः कर्तव्यम् । गृहस्थः । तोय जलम् । वस्त्रपूर्त पिबेत् । गृहस्थः रात्रिभोजनवर्जन करोति ॥ २५॥ येन मेणा दर्शनं मलिनं भवति । च पुनः । येन कर्मणा व्रतखण्डनं भवति । तं देश तं नई तत् खं द्रव्य तत्कर्माधि भपि म आश्रयेत् ॥ २६॥ युधैः चतुरैः। सदा सर्वदा। भोगोपभोगसंख्यानम् । विधिवत विधिपूर्वकम् । विधेयं कर्तव्यम् । काचित् कालकलर व्रतमा न कर्तव्या ।। ५७ ॥ भव्यैः । अतन्द्रितैः बालस्यरहितः । तथा रमत्रयस्य आश्रयः कार्यः कम्यः यवा तस्य दर्शमस्य रसत्रयस श्रया जन्मान्तरेऽपि तराम् भतिशयेन संवर्धते ॥ २८ ॥ चाहिये कि जिस संसारमें मैं रह रहा हूं वह अशरण है, अशुभ है, अनित्य है, दुःखस्वरूप है, तथा आत्मखरूपसे भिन्न है। किन्तु इसके विपरीत मोक्ष शरण है, शुभ है, नित्य है, निराकुल सुखस्वरूप है, और आत्मस्वरूपसे अभिन्न है; इत्यादि। अष्टमी एवं चतुर्दशी आदिको अन्न, पान ( दूध आदि), खाध (ल-पेड़ा आदि)
और लेख (चाटने योग्य रगड़ी आदि) इन चार प्रकारके आहारोंका परित्याग करना; इसे प्रोषधोपवास कहा जाता है। प्रोपयोपवास यह पद प्रोषध और उपवास इन दो शब्दोंके समाससे निष्पन्न हुआ है। इनमें प्रोषध शब्दका अर्थ एक वार मोजन ( एकाशन) तथा उपवास शब्दका अर्थ चारों प्रकारके आहारका छोड़ना है। अमिप्राय यह कि एकाशनपूर्वक जो उपवास किया जाता है वह प्रोषधोपवास कहलाता है। जैसे यदि अष्टमीका प्रोषधोपवास करना है सो ससमी और नवमीको एकाशन तथा अष्टमीको उपवास करना चाहिये। इस प्रकार प्रोषोपवासमें सोलह पहरके लिये आहारका त्याग किया जाता है । प्रोषधोपवासके दिन पार पाप, खान, अलंकार तथा सब प्रकारके आरम्मको छोड़कर ध्यानाध्यायनादिमें ही समयको बिताना चाहिये । किसी प्रत्युपकार आदिकी अभिलाषा न करके जो मुनि आदि सत्पात्रोंके लिये दान दिया जाता है, इसे वैयावृत्य कहते हैं। इस वैयावृत्यमै दानके अतिरिक्त संयमी जनोंकी यथायोग्य सेवा-शुश्रूषा करके उनके कष्टको मी दूर करना चाहिये । किन्हीं आचायोंके मतानुसार देशावकाशिक व्रतको गुणतके अन्तर्गत तथा मोगोपभोगपरिमाणवतको शिक्षावतके अन्तर्गत ग्रहण किया गया है ॥ २४ ॥ श्रावकको पर्वदिनों (अष्टमी एवं चतुर्दशी आदि) में अपनी शक्तिके अनुसार भोजनके परित्याग आदिरूष (अनशनादि) तर्पोको करना चाहिये । इसके साथ ही उन्हें रात्रिभोजनको छोड़कर वस्त्रसे छना हुआ जल भी पीना चाहिये ॥ २५ ॥ जिस देशादिके निमिससे सम्यग्दर्शन मलिन होता हो तथा व्रतोंका नाश होता हो ऐसे उस देशका, उस मनुष्यका, उस व्यका तथा उन क्रियाओंका भी परित्याग कर देना चाहिये ॥ २६ ॥ विद्वान् मनुष्योंको नियमानुसार सदा भोग और उपभोगरूप वस्तुओंका प्रमाण कर लेना चाहिये । उनका थोड़ा-सा भी समय व्रतोंसे रहित नहीं जाना चाहिये ॥ विशेषार्थ-जो वस्तु एक ही बार उपयोगमें आया करती है उसे भोग कहा जाता है-जैसे भोज्य पदार्थ एवं माला आदि। इसके विपरीत जो वस्तु अनेक वार उपयोगमें आया करती है वह उपभोग कहलाती है-जैसे वस्त्र आदि । इन दोनों ही प्रकारके पदार्थोंका प्रमाण फरके श्रावकको उससे अधिककी इच्छा नहीं करना चाहिये ।। २७ ॥ भव्य जीवोंको आलस्य छोड़कर रत्नत्रयका आश्रय इस प्रकारसे. करना चाहिये कि जिस प्रकारसे उनका उक
सालमाणि न ।