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पचनन्दि-पञ्चविंशतिः
722 ) अण्णो को सुह पुरओ धण्ग गरुयन्त्तणं पयासंतो । अम्मित परमियन्तं केसणहाणं पि जिण जायं ॥ ४१ ॥ 728) सह सरीरं तुह पत्रु तिहुयणजणणयार्थिव विच्छुरिये । पढिसमयमचियं चास्तरलणीलुप्पलेहिं वै ॥ ४२ ॥ 724 ) अहमहमिया निवडति णाह छुहियालिणो व्य हरिचफ्लू । तुज्झ थिय महपहसरमज्य द्विये खलणकमलेसुं ॥ ४३ ॥ 725) कणयकमलाणमुरि सेवा सुह विबुहकप्पियाण तुई । अहिय सिरीणं ततो जुभं चरणाण संचरणं ॥ ४४ ॥ 726 ) - हरिकयकण्णसु हो गिखा अमरेहिं तुह जसो सग्गे । भण्णे सोमणो हरिणो हरिणकमल्लीणो ॥ ४५ ॥
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इव ॥ ४० ॥ भो जिन । तव पुरतः अग्रे अन्यः कः बलाति गुरुत्वं प्रकाशयन् यस्मिन् त्वयि केशनखानाम् अपि प्रमा जातम् ॥ ४९ ॥ भो प्रभो । सब शरीर शोभते । किंलक्षणं शरीरम् । त्रिभुवनजननयन बिम्मेषु विस्फुरितं प्रतिबिम्बितम् पुनः। किंलक्षणं शरीरम् । चारुतरलनीलोत्पलैः कमलैः प्रतिसमयम् अर्चितम् ॥ ४२ ॥ भो नाथ भी अये । तब भ खरोमध्यस्थितचरणकमलेषु । हरिचक्षूंषि इन्द्रनयनानि । अहमहमिकया अहं प्रथमम् आगतम् । निपतन्ति । क्षानि नानि । क्षुधिता भ्रमरा इव ॥ ४३ ॥ तत्तस्मात्कारणात् । तव भरणानां कनककमलानाम् उपरि संवरणं गमनं युक्तम् । लक्षणानां चरणानाम् । अधिक श्रीणाम्। पुनः किंलक्षणानाम् । कनककमलानां सब सेवानिमित्तं विवुधदेवकल्पितानच नाम् । विशुधैः देवैः स्थापितानाम् ॥ ४४ ॥ भो देव । तव यशः देवैः स्वर्गे गीयते। किंलक्षणं यशः । शची-इन्द्रकु शचीइन्द्रयोः कृतकर्णेमुखम् । अहम् एवं मन्ये । तद्यशः श्रोतुमनाः हरिष्यः मृगः चन्द्रकमलीनः [ चन्द्रमालीनः ] ॥ ४५०) जिन आपमें बाल और नख भी परिमितताको प्राप्त अर्थात् वृद्धिसे रहित हो गये थे उन आपके भा दूसरा कौन अपनी महिमाको प्रगट करते हुए जा सकता है ! अर्थात् कोई नहीं ॥ विशेषार्थ - केवलान प्रगट हो जानेपर नल और बालोंकी वृद्धि नहीं होती । इसके ऊपर यहां यह उत्प्रेक्षा की गई है कि नख - केशोंकी वृद्धिका अभाव मानो यह सूचना ही करता था कि ये जिनेन्द्र भगवान् सर्वश्रेष्ठ हैं, इन आगे किसी दूसरेका प्रभाव नहीं रह सकता है || ४१ ॥ हे प्रभो ! आपके शरीरपर जो तीनों लो प्राणियों के नेत्रोंका प्रतिबिम्ब पड़ रहा था उससे व्याप्त वह शरीर ऐसा प्रतीत होता था मानो वह निर सुन्दर एवं चंचल नील कमलोंके द्वारा पूजाको ही प्राप्त हो रहा है ।। ४२ ।। हे नाथ ! तुम्हारे ही लोग कान्तिरूप सरोवरके मध्यमें स्थित चरणरूप कमलोंके ऊपर जो इन्द्रके नेत्र गिरते हैं वे ऐसे दिखते हैं जो मानो अहमहमिका अर्थात् मैं पहिले पहुंचूं, मैं पहिले पहुंचूं, इस रूपसे भूखे भ्रमर ही उनपर गिर रहे हैं। ॥ ४३ ॥ हे भगवन् ! तुम्हारी सेवाके लिये देवोंके द्वारा रचे गये सुवर्णमय कमलोंके ऊपर जो चरणका संचार होता था वह योग्य ही था, क्योंकि, आपके चरणोंकी शोभा उन कमलोंसे अधिक ॥ ४४ ॥ हे जिनेन्द्र ! स्वर्गमें इन्द्राणी और इन्द्रके कानोंको सुख देनेवाला जो देवोंके द्वारा आ यशोगान किया जाता है उसको सुननेके लिये उत्सुक होकर ही मानो हिरणने चन्द्रका आक लिया है, ऐसा मैं समझता हूं ॥ ४५ ॥ हे जिनेन्द्र ! कमलमें लक्ष्मी रहती है, यह कहना मसल है; कारण कि वह तो आपके चरणकमलमै रहती है । तभी तो नमस्कार करते हुए जनोंके उमर
१ क श सोहर । २ - प्रतिपाठोऽयम् । अफश'' | ३ क मशद्वय । ४ अ 'अहं प्रथर्म आय' नास्ति । 4'R देवकल्पितानां रचिताना' नास्ति । ६ चन्द्रमालीनः ।