Book Title: Padmanandi Panchvinshati
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

View full book text
Previous | Next

Page 260
________________ પ पचनन्दि-पञ्चविंशतिः 756 ) दिट्ठे सुमम्मि जिणबर मोक्खो अदुल्लदो वि संपडछ । मिमलकलंकी मणो ण जइ होइ पुरिसस्स ॥ १५ ॥ 757) हे तुमसि जियार नम्मरणच्छिणा वि तं पुण्णं । जं जण पुरो केवलदंसणणाणाई पयणाई ॥ १६ ॥ 758) बिहे तुमम्मि जिणवर सुकयत्थो मणिकोण जेणप्पा । सो कुणा भवसायरे काही ॥ १७ ॥ 759 ) दिट्ठे तुमम्मि जिणवर णिच्छयविद्वीप होह जं किं पि । ण गिराए गोचरं तं सानुभवत्थं पि किं भणिमो ॥ १८ ॥ 760 ) दिहे तुमम्मि जिणवर दुव्यावैद्दिविसेसचम्मि सणसुखी गयं दाणिं मई पस्थि सम्धत्था ॥ १९ ॥ 761) विद्वे तुमम्मि जिणवर अहिये सुहिया समुज्जला होह । जणविट्ठी को पेच्छ तईसणसुत्यरं सूरं ॥ २० ॥ 762 ) विद्वे तुमम्मि जिणवर बुहम्मि दोसोझियस्मि वीरम्मि । फस्स किर रमइ दिट्टी जडम्मि दोसायरे खत्थे ॥ २१ ॥ [736: १४-१५ www न किंलक्षणे त्वयि । समयामृतसागरे गंभीरे ॥ १४ ॥ भो जिनवर । त्वयि दृष्टे सति पुरुषस्य अतिदुर्लभोऽपि मोक्षः पद्म उत्पद्यते । यदि चेन्मनः मिध्यात्वमलकल िन भवति ॥ १५ ॥ भो जिनवर । त्वयि दृष्टे सति चर्ममयनेत्रेणापि तत्पु जन्मते अपयते यत्पुण्यं पुरः अप्रे केवलदर्शनशानानि नयनानि जनयति उत्पादयति ॥ १६ ॥ भो जिनवर । त्वयि दृष्टे ठ येन जनेन आत्मा सुकृतार्थः न मानितः स नरः भवसागरे समुद्रे मज्जनोन्मज्जनानि करिष्यति ॥ १७ ॥ भो जिनवर । त्वयि र यति निश्चय यस्किमपि भवति तरस्वानुभवस्थमपि' स्वकीय अनुभवगोचरमपि गिरा वाण्या कृत्वा गोचरं न तरिकं बध्यते ॥१८॥ भो जिनवर । स्वष्टेि सति । इदानीं दर्शनशुद्धया एक्स्वं गतं प्राप्त सर्वथा न अस्ति । अपि तु अस्ति । किंलक्षणे स्वयि । अवधिविशेषरूपे केवलयुक्ते ॥ १९ ॥ भो जिनवर । त्वयि दृष्टे सति जनष्टिः अधिकं सुहिता समुज्वला भवति । तत्तस्मात्कारणात् । तव दर्शनं सुखकरं सूर्य कः न प्रेक्षते । अपि तु सर्वः प्रेक्षते ॥ २० ॥ भो जिनवर । त्वयि दृष्टे सति किल इति सत्ये । कस्य जनस्सी कौन-सा बुद्धिमान मनुष्य शमादि- दोषोंसे मलिनताको प्राप्त हुए देवोंको मानता है ? अर्थात् कोई मी बुद्धिमान पुरुष उन्हें देव नहीं मानता है || १४ || हे जिनेन्द्र ! यदि पुरुषका मन मिध्यात्वरूप मलसे मलिन नहीं होता है तो आपका दर्शन होनेपर अत्यन्त दुर्लभ मोक्ष भी प्राप्त हो सकता है ॥ १५ ॥ हे जिनेन्द्र | चर्ममय नेत्रसे भी आपका दर्शन होनेपर वह पुण्य प्राप्त होता है जो कि भविष्यमें केवलदर्शन और केवलज्ञान रूप नेत्रोंको उत्पन्न करता है ॥ १६ ॥ हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर जो जीव अपनेको अतिशय कृतार्थ ( कृतकृत्य ) नहीं मानता है वह संसाररूप समुद्रमें बहुत वार गोता लगायेगा ॥ १७ ॥ हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर जो कुछ भी होता है वह निश्चयदृष्टिसे वचनका विश्व नहीं है, वह तो केवल स्वानुभवका ही विषय है । अत एव उसके विषय में भला हम क्या कह सकते हैं! अर्थात् कुछ नहीं कह सकते हैं - यह अनिर्वचनीय है ॥ १८ ॥ हे जिनेन्द्र ! देखने योग्य पदार्थोंके सीमाविशेष स्वरूप ( सर्वाधिक दर्शनीय) आपका दर्शन होनेपर जो दर्शनविशुद्धि हुई है उससे इस समय यह निश्चय हुआ है कि सब बाघ पदार्थ मेरे नहीं हैं १९ ॥ हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर लोगोंकी दृष्टि अतिशय सुखयुक्त और उज्ज्वल हो जाती है। फिर भला कौन-सा बुद्धिमान् मनुष्व उस दृष्टिको सुखकारक ऐसे सूर्यका दर्शन करता है ? अर्थात् कोई नहीं करता || २० || हे जिनेन्द्र | ज्ञानी, ॥ १ सारात् संशोधने हवे मूलप्रतिपाठो बिस्खलितो जातः । २ कुष्णाएं, बहुगुणकुणाई १ ४ विहि ४५. व श्वानमा ६ स अतोऽये 'गिरो माण्याः कृत्वा गोरं त्वकीमानुभवगोचरमपि न परव विभः पाठोऽस्ति । क 'जनस्थ' नाति ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328